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________________ जैनधर्म १५४ उदोरणा-जैसे, आमोंके मौसममें आम बेचनेवाले आमोंको जल्दी पकानेके लिये पेड़से नोड़कर भूसे वगैरहमें दबा देते हैं, जिससे वे आम वृक्षकी अपेक्षा जल्दी पक जाते हैं। इसी नरह कभी कभी नियत समयसे पहले कर्मका विपाक हो जाता है । इसे ही उदीरणा कहते हैं। उदीरणाके लिये पहले अपकर्षण करणके द्वारा कर्मको स्थिनिको कम कर दिया जाता है, स्थिनिके घट जानेपर कर्म नियत समयसे पहले उदयमें आ जाता है। जब कोई असमयमें हो मर जाता है तो उसकी अकालमृत्यु कही जाती है। इसका कारण आयुकर्मकी उदीरणा ही है। स्थिनिका घात हुए बिना उदीरणा नहीं होती। __ संक्रमण-एक कर्मका दुसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको संक्रमण करण कहते हैं । यह संक्रमण मूल भेदोंमें नहीं होता। अर्थात ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप नहीं होता और न दर्शनावरण ज्ञानावरणरूप होता है ? इसी तरह अन्य कोंके बारेमें भी जानना। किन्तु एक कर्मका अवान्तर भेद अपने सजातीय अन्य भेदरूप हो सकता है । जैसे, वेदनीय कर्मके दो भेदोंमेंसे सातवेदनीय असातवेदनीय रूप हो सकता है और असानवेदनीय सातवेदनीयरूप हो सकता है । यद्यपि संक्रमण एक कर्मके अवान्तर भेदोंमें ही होता है, किन्तु उसमें अपवाद भी है। आयुकर्मके चार भेदोंमें परस्परमें संक्रमण नहीं होता। नरकगतिकी आयु बाँध लेनेपर जीवको नरकगतिमें ही जाना पड़ता है, अन्य गनिमें नहीं । इस प्रकार बााकी तीन आयुओंके बारे में भी जानना चाहिये। उपशम--कम को उदयमें आ सकनेके अयोग्य कर देना उपशम करण है । निधत्ति-कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है।
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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