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________________ ११८ जैनधर्म कार्य करने लग जाते हैं उसी प्रकार दुनियाके लोगोंने भी संसार के प्रबन्धकर्ताको खुशामद या स्तुतिसे प्रसन्न होनेवाला मानकर उसकी भी खुशामद करना शुरू कर दिया है और अपने आचरणोंको सुधारना छोड़ बैठे हैं। इसी वजहसे संसारमें पापोंकी वृद्धि होती जाती है। जब मनुष्य इस भ्रामक विचारको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जायेंगे तभी उनके चित्तमें यह विचार जड़ पकड़ सकता है कि जिस प्रकार आँखोंमें मिर्च और घावपर नमक डाल देनेसे दर्दका होना आवश्यक है वह दर्द किसीकी खुशामद या स्तुतिसे दूर नहीं हो सकता, जबतक कि मिर्च या नमकका असर दूर न कर दिया जाये । उस ही प्रकार जैसा हमारा आचरण होगा वैसा ही उसका फल भी हमें अवश्य भोगना पड़ेगा। किसीकी खुशामद या स्तुतिसे उसे टाला नहीं जा सकता। 'जैसी करनी वैसी भरनी, के सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जानेपर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच सकता है और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता है। परन्तु जब तक मनुष्यको यह ख्याल बना रहेगा कि खुशामद करने, केवल स्तुतियाँ पढ़ने या भेंट चढ़ाने आदिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तबतक वह बुरे कामोंसे नहीं बच सकता और न अच्छे कामोंकी तरफ लग सकता है। अतः संसारके लोगोंको चाहिये कि वे वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्त पर विश्वास लावें, अपने अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके लिये सदा तैयार रहें और किसीको खुशामद या स्तुति करनेसे उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असंभव समझें। ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा, वे अपने पैरोंपर खड़े होकर अपने आचारणोंको ठीक वनानेका प्रयत्न करेंगे और तभी दुनियासे सब पाप और अन्याय दूर हो सकेंगे। नहों तो, किसी प्रबन्धकर्ताको माननेको अवस्था में हृदयमें अनेक भ्रम उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके लोग पापोंकी तरफ ही भुकते रहेंगे । जैसे, कोई एक तो यह सोचेगा कि यदि उस सर्व
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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