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________________ सिद्धान्त गोचर होने लगता है। यदि हम यह मानते हैं कि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या वेश्या आदि पापियोंके घर पैदा किया गया है वह अपने भले बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ही ऐसे स्थानमें पैदा किया गया है तो सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वरको प्रबन्धकर्ता माननेको अवस्थामें यह बात ठीक नहीं बैठती; क्योंकि शराबी शराब पीकर और उसका बुरा फल भोगकर भी यदि शराबकी दुकानपर जाता है और पहलेसे भी तेज शराब मांगता है नो वस्तुस्वभावके अनुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि शराबनं उसका दिमाग ऐसा खराब कर दिया है जिससे अब उसको पहलेसे भी ज्यादा तेज शराब पीनेकी इच्छा होती है । परन्तु जगतके प्रबन्धकर्ता द्वारा ही फल मिलनेको अवस्थामें तो शराब पीनेका ऐसा दण्ड मिलना चाहिये था जिससे वह शराबकी दुकानतक पहँच ही नहीं सकता या फिर कभी उसका नाम ही नहीं लेता। इसी तरह व्यभिचार और चोरी आदिकी भी ऐसी सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे वह कभी भी व्यभिचार या चोरी करने नहीं पाता। जो जीव चोरों या वेश्याओंके घर पैदा किये जाते हैं उन्हें ऐसी जगह पैदा करना तो चोरी और व्यभिचारकी शिक्षा दिलानेका ही प्रयत्न करना है । सर्वशक्तिमान दयालु परमेश्वरसे तो ऐसी आशा कभी भी नहीं की जा सकती। एसी बातें देखकर यही मानना पड़ता है कि संसारका कोई भी एक बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है। बल्कि वस्तु स्वभावके द्वारा और उसीके अनुसार ही जगतका सव प्रबन्ध चल रहा है खेद है कि मनुष्योंने वस्तु स्वभावको न समझकर संसारका एक प्रबन्धकर्ता मान लिया है। पृथ्वीपर राजाको मनुष्यों के वीचमें प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही मान लिया है । जिस प्रकार राजा लोग खुशामद और स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके वशमें हो जाते हैं और उनकी इच्छाके अनुसार ही
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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