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________________ सिद्धान्त ११९ शक्तिमान परमेश्वरको मुझसे पाप कराना मंजूर नहीं होता तो वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने देता । दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे ऐसा बनाता ही क्यों ? तीसरा कहेगा कि यदि यह पापोंको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता । चौथा सोचेगा कि अब तो यह पाप कर लें फिर उस सर्वशक्तिमानकी खुशामद करके उसे भेंट चढ़ाकर अपराध क्षमा करा लेंगे । सारांश यह है कि संसारका प्रबन्धकर्ता माननेकी अवस्थामें तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ों बहाने बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तु स्वभाव के अनुसार ही संसारका सब कार्य चलता हुआ माननेकी अवस्थामें इसके सिवाय कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेंगे वैसा ही हम उसका फल भी पावेंगे । ऐसा माननेपर हो हम बुरे आचरणोंसे बच सकते हैं और अच्छे आचरणांकी ओर लग सकते है । अतः किसी प्रबन्धकर्त्ता की खुशामद करके या भेंट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे न रहकर हमको स्वयं अपने आचरणोंको सुधारनेकी ओर ही दृष्टि रखनी चाहिये और यही श्रद्धान रखना चाहिये कि यह विश्व अनादि-निधन है इसका कोई एक बुद्धिमान प्रबन्धकर्ता नहीं है । ७. जैनदृष्टिसे ईश्वर 'ईश्वर' शब्द के सुनते हो हमें जिन अर्थोंका बोध होता है वे हैं - ऐश्वर्यशाली, वैभवशाली, सर्वशक्तिमान्, स्वामी, अधिकारी, कर्ता हर्ता आदि । इस लोक में जो दर्जा एक स्वतंत्र सम्रादूका है वही परलोकमें ईश्वर या परमेश्वरका माना जाता है । जैसे किसी राजवंशमें जन्म लेनेवालोंको सम्राट्पद अनायास प्राप्त हो जाता है, उसके लिये उन्हें कुछ भी प्रयत्न नहीं करना पड़ता, वैसे ही वह ईश्वर भी अनादिकालसे संसारके कारण क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासनाओंसे सर्वथा अछूता है, उनका
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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