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________________ जैनधर्म विपरीत नियम चलाना चाहता है या उसके विरुद्ध प्रचार करता है तो वह दण्ड पाता है। किन्तु सर्वशक्तिमान परमात्माके राज्यमें सैकड़ों ही मतोंके प्रचारक अपने अपने धर्मका उपदेश करते हैं अपने अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा करते हैं। और यह सब कुछ होते हुए भी संसारके प्रवन्धकर्ता उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी ओरसे छ भी रोकटोक इस विषयमें नहीं होती। ऐसी स्थितिमें तो कभी भी यह नहीं माना जा सकता कि कोई सर्वशक्तिमान परमेश्वर इस संसारका प्रबन्ध करता है। बल्कि यही माननेके लिये विवश होना पड़ता है कि वस्तु स्वभावपर ही संसारका सारा ढाँचा बँधा हुआ है और उसीके अनुसार जगतका सब प्रबन्ध चला आता है। यही कारण है कि यदि कोई मनुष्य वस्तु स्वभावके विपरीत आचरण करता है तो ये सव वस्तुएँ उसको मना करने या रोकने नही जाती। और न अपने स्वभावके अनुसार कभी अपना फल देनेसे ही चूकती हैं । जैसे, आगमें चाहे तो कोई बालक नादानीसे अपना हाथ डाल दे या किसी बुद्धिमान पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, वह आग अपना काम अवश्य करेगी। मनुष्यके शरीर में सैकड़ों बीमारियाँ ऐसी ऐसी होती हैं जो उसके अज्ञात दापोंका ही फल होती हैं। परन्तु प्रकृति या वस्तु स्वभाव उसे नहीं बताते कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे दोषोंका फल भी हमें वस्तु स्वभावके अनुसार स्वयं मिल जाता है। इस प्रकार वस्तु स्वभावके अनुसार तां यह बात ठीक बैठ जाती है कि मुख दुःख भोगते समय क्यों हमको हमारे उन कृत्योंकी खबर नहीं होती. जिनके फलस्वरूप हमें वह सुख दुःख भोगना पड़ता है। परन्तु किसी प्रबन्धकर्ताके माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नहीं बैठती, बल्कि उल्टा अन्धेर ही दृष्टि
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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