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________________ सिद्धान्त ११५ कुएँ आदि खोदकर यह प्रबन्ध किया है कि यदि वर्षा न हो तो भी अपने खेतोंको पानी देकर वह अनाज पैदा कर मके। __ इसके सिवाय जब प्रत्येक धर्मके अनुसार संसारमें इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारीभारी अन्याय देखने में आते हैं तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगत्का कोई प्रबन्धकर्ता भी है, जिसकी आज्ञाको न मानकर ही ये सब अपराध और पाप हो रहे हैं। शायद कहा जाये कि राजाकी भी तो आज्ञाभंग होती रहती है। किन्तु राजा न तो सर्वज्ञ ही होता है और न सर्वशक्तिमान । इसलिये न तो उसे सब अपराध करनेवालोंका ही पता रहता है और न वह सब प्रकारके अपराधोंको दूर ही कर सकता है। परन्तु जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हो और एक छोटेसे परमाणुसे लेकर आकाश तककी गति और स्थितिका का कारण हो, जिसकी इच्छाके बिना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता हो, उसके सम्बन्धमें यह बात कभी भी नहीं कही जा सकती। एक ओर तो उसे संसारके एक एक कणका प्रबन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधोंके रोकनेमें उसे असमर्थ ठहराना, यह तो उस प्रबन्धकर्ताका परिहास है। तथा यदि कोई इस संसारका प्रबन्धक होता तो वह यह अवश्य बतलाता कि इस समय हमें जो सुख या दुःख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है जिससे हम आगामीको बुरे कृत्योसे बचते और अच्छे कामोंकी ओर लगते । परन्तु हमें तो यह भी मालूम नहीं कि पुण्य क्या है और पाप क्या है ? एक ही कृत्यको कोई पाप कहता है और कोई पुण्य । यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फैले हुए हैं और तमाशा यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्वशक्तिमान् परमात्मा का बतलाया हुआ कहते हैं। जहाँ तक हम समझते हैं ऐसा अन्धेर तो मामूली राजाओंके राज्यमें भी नहीं होता। प्रत्येक राजाके राज्यमें जो कानून प्रचलित होता है, यदि कोई मनुष्य उसके
SR No.010347
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1966
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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