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________________ स्याद्वाद ४८९ नाश उत्तररूप होता है । यदि यह प्रध्वंसाभाव न माना जाय तो सभी पर्यायें अनन्त हो जायगी, यानी वर्तमान क्षणमें अनादिकालसे अब तक हुई. सभी पर्यायोंका सद्भाव अनुभवमें आना चाहिये, जो कि असंभव है। वर्तमानमें तो एक ही पर्याय अनुभवमें आती है। यह शंका भी नहीं ही हो सकती कि 'घटविनाश यदि कपालरूप है तो कपालका विनाश होने पर, यानी घटविनाशका नाश होने पर फिर घड़ेको पुनरुज्जीवित हो जाना चाहिये, क्योंकि विनाशका विनाश तो सद्भावरूप होता है'; क्योंकि कारणका उपमर्दन करके तो कार्य उत्पन्न होता है पर कार्यका उपमर्दन करके कारण नहीं । उपादानका उपमर्दन करके उपादेयको उत्पत्ति हो सर्वजनसिद्ध है । प्रागभाव ( पूर्वपर्याय ) और प्रध्वंसाभाव ( उत्तर पर्याय) में उपादान-उपादेयभाव है । प्रागभावका नाश करके प्रध्वंश उत्पन्न होता है, पर प्रध्वंसका नाश करके प्रागभाव पुनरुज्जीवित नहीं हो सकता । जो नष्ट हुआ, वह नष्ट हुआ । नाश अनन्त है। जो पर्याय गयी वह अनन्तकालके लिये गयी, वह फिर वापिस नहीं आ सकती । 'यदतीतमतीतमेव तत्' यह ध्रुव नियम है । यदि प्रध्वंसाभाव नहीं माना जाता है तो कोई भी पर्याय नष्ट नहीं होगी, सभी पर्यायें अनन्त हो जायगीं, अतः प्रध्वंसाभाव प्रतिनियत पदार्थ-व्यवस्थाके लिये नितान्त आवश्यक है । इतरेतराभाव : एक पर्यायका दूसरी पर्यायमें जो अभाव है वह इतरेतराभाव है । स्वभावान्तरसे स्वस्वभावको व्यावृत्तिको इतरेतराभाव कहते हैं । प्रत्येक पदार्थके अपने-अपने स्वभाव निश्चित है। एक स्वभाव दूसरे रूप नहीं होता । यह जो स्वभावोंकी प्रतिनियतता है वही इतरेतराभाव है । इसमें एक द्रव्यकी पर्यायोंका परस्परमें जो अभाव है वही इतरेतराभाव फलित होता है, जैसे घटका पटमें और पटका घटमें वर्तमानकालिक अभाव । कालान्तरमें घटके परमाणु मिट्टी, कपास और तन्तु बनकर पटपर्यायको
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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