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________________ जैनदर्शन धारण कर सकते हैं, पर वर्तमानमें तो घट पट नहीं हो सकता है। यह जो वर्तमानकालीन परस्पर व्यावृत्ति है वह अन्योन्याभाव है। प्रागभाव और प्रध्वंसाभावसे अन्योन्याभावका कार्य नहीं चलाया जा सकता; क्योंकि जिसके अभावमें नियमसे कार्यकी उत्पत्ति हो वह प्रागभाव और जिसके होने पर नियमसे कार्यका विनाश हो वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है, पर इतरेतराभावके अभाव या भावरो कार्योत्पत्ति या विनाशका कोई सम्बन्ध नहीं है । वह तो वर्तमान पर्यायोंके प्रतिनियत स्वरूपकी व्यवस्था करता है कि वे एक दूसरे रूप नहीं हैं। यदि यह इतरेतराभाव नहीं माना जाता; तो कोई भी प्रतिनियत पर्याय सर्वात्मक हो जायगी, यानी सब सर्वात्मक हो जाँयगें। अत्यन्ताभाव : एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें जो त्रैकालिक अभाव है वह अत्यन्ताभाव है । ज्ञानका आत्मा समवाय है, उसका समवाय कभी भी पुद्गलमें नहीं हो सकता, यह अत्यन्ताभाव कहलाता है। इतरेतराभाव वर्तमानकालीन होता है और एक स्वभावकी दूसरेसे व्यावृत्ति कराना ही उसका लक्ष्य होता है। यदि अत्यन्ताभावका लोप कर दिया जाये तो किसी भी द्रव्यका कोई असाधारण स्वरूप नहीं रह जायगा। सब द्रव्य सब रूप हो जायगें। अत्यन्ताभावके कारण ही एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप नहीं हो पाता। द्रव्य चाहे सजातीय हों, या विजातीय, उनका अपना प्रतिनियत अखंड स्वरूप होता है। एक द्रव्य दूसरेमें कभी भी ऐसा विलीन नहीं होता, जिससे उसकी सत्ता ही समाप्त हो जाय । इस तरह ये चार अभाव, जो कि प्रकारान्तरसे भावरूप ही हैं, वस्तुके धर्म हैं। इनका लोप होनेपर, यानी पदार्थोंको सर्वथा भावात्मक माननेपर उक्त दूषण आते हैं। अतः अभावांश भी वस्तुका उसी तरह धर्म है जिस प्रकार कि भावांश । अतः वस्तु भावाभावात्मक है।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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