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________________ ४८८ जैनदर्शन से उत्पन्न होता है । कार्यका उत्पत्तिके पहले न होना ही प्रागभाव कहलाता है । यह अभाव भावान्तररूप होता है। यह तो ध्रुवसत्य है कि किसी भी द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं होती। द्रव्य तो विश्वमें अनादि-अनन्त गिने-गिनाये है। उनकी संख्या न तो कम होती है और न अधिक । उत्पाद होता है पर्यायका । द्रव्य अपने द्रव्यरूपसे कारण होता है और पर्यायरूपसे कार्य । जो पर्याय उत्पन्न होने जा रही है वह उत्पत्तिके पहले पर्यायरूपमें तो नहीं है, अतः उसका जो यह अभाव है वही प्रागभाव है। यह प्रागभाव पूर्वपर्यायरूप होता है, अर्थात् 'घड़ा' पर्याय जबतक उत्पन्न नहीं हुई, तबतक वह 'असत्' है और जिस मिट्टी द्रव्यसे वह उत्पन्न होनेवाली है उस, द्रव्यकी घटसे पहलेकी पर्याय घटका प्रागभाव कही जाती है। यानी वही पर्याय नष्ट होकर घट पर्याय बनती है, अतः वह पर्याय घटप्रागभाव है । इस तरह अत्यन्त सूक्ष्म कालको दृष्टिसे पूर्वपर्याय ही उत्तरपर्यायका प्रागभाव है, और सन्ततिको दृष्टिसे यह प्रागभाव अनादि भी भी कहा जाता है। पूर्वपर्यायका प्रागभाव तत्पूर्व पर्याय है, तथा तत्पूर्वपर्यायका प्रागभाव उससे भी पूर्वको पर्याय होगा, इस तरह सन्ततिकी दृष्टिसे यह अनादि होता है। यदि कार्य-पर्यायका प्रागभाव नहीं माना जाता है, तो कार्यपर्याय अनादि हो जायगी और द्रव्यमें त्रिकालवर्ती सभी पर्यायोंका एक कालमें प्रकट सद्भाव मानना होगा, जो कि सर्वथा प्रतीतिविरुद्ध है। प्रध्वंसाभाव: द्रव्यका विनाश नहीं होता, विनाश होता है पर्यायका । अतः कारणपर्यायका नाश कार्यपर्यायरूप होता है, कारण नष्ट होकर कार्य बन जाता है । कोई भी विनाश सर्वथा अभावरूप या तुच्छ न होकर उत्तरपर्यायरूप होता है । घड़ा पर्याय नष्ट होकर कपाल पर्याय बनती है, अतः घटविनाश कपाल ( खपरियां ) रूप ही फलित होता है । तात्पर्य यह कि पूर्वका
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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