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________________ जैनदर्शन खोल ग्रन्थि भेदकर परम निर्ग्रन्थ हो साधनामें लीन हुए। इन्हींका अरिष्टनेमिके रूपमें उल्लेख यजुर्वेद में भी आता है । २३ वें तीर्थकर पार्श्वनाथ : __ तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ इसी बनारसमें उत्पन्न हुए थे। वर्तमान भेलूपुर उनका जन्मस्थान माना जाता है । ये राजा अश्वसेन और महारानी वामादेवीके नयनोंके तारे थे। जब ये आठ वर्षके थे, तब एक दिन अपने संगीसाथियोंके साथ गंगाके किनारे घूमने जा रहे थे । गंगातट पर कमठ नामका तपस्वी पंचाग्नि तप कर रहा था। दयामूर्ति कुमार पार्श्वने एक जलते हुए लक्कड़से अधजले नाग-नागिनको बाहर निकालकर प्रतिबोध दिया और उन मृतप्राय नागयुगल पर अपनी दया-ममता उड़ेल दी। वे नागयुगल धरणेन्द्र और पद्मावतीके रूपमें इनके भक्त हुए । कुमार पार्श्वका चित्त इस प्रकारके बालतप तथा जगत्की विषम हिंसापूर्ण परिस्थितियोंसे विरक्त हो उठा, अतः इस युवा कुमारने शादी-विवाहके बन्धनमें न बँधकर जगत्के कल्याणके लिये योगसाधनाका मार्ग ग्रहण किया। पाली पिटकोंमें बुद्धका जो प्राक् जीवन मिलता है और छह वर्ष तक बुद्धने जो कृच्छ्र साधनाएँ की थीं उससे निश्चित होता है कि उस कालमें बुद्ध पार्श्वनाथकी परम्पराके तपयोगमे भी दीक्षित हुए थे। इनके चातुर्याम संवरका उल्लेख बार-बार आता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह इस चातुर्याम धर्मके प्रवर्तक भगवान् पार्श्वनाथ थे, यह श्वेताम्बर आगम ग्रन्थोंके उल्लेखोंसे भी स्पष्ट है । उस समय स्त्री परिग्रहमें शामिल थी और उसका त्याग अपरिग्रह व्रतमें आ जाता था। इनने भी अहिंसा आदि मूल तत्त्वोंका ही उपदेश दिया । अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर : ___इस युगके अंतिम तीर्थकर थे भगवान् महावीर । ईसासे लगभग ६०० वर्ष पूर्व इनका जन्म कुण्डग्राममें हुआ था। वैशालीके पश्चिममें गण्डकी
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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