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________________ सामान्यावलोकन 1 पूर्वपर्यायको छोड़ता हुआ और इस अनादिप्रवाह को समाप्त नहीं होता । तात्पर्य साथ ही साथ त्रिलक्षण इनने प्रमेयका स्वरूप उत्पाद, व्यय और धीव्य इस प्रकार विलक्षण बताया है । प्रत्येक सत्, चाहे वह चेतन हो या अचेतन, त्रिलक्षणयुक्त परिणामी है । प्रत्येक पदार्थ प्रतिक्षण अपनी नवीन उत्तरपर्याय को धारण करता जाता है अनन्तकाल तक चलाता जाता है, कभी भी यह कि तीर्थंकर ऋषभदेवने अहिंसा मूलधर्मके प्रमेय, अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद भाषाका भी उपदेश दिया । नय, सप्तभंगी आदि इन्होंके परिवारभूत है । अतः जैनदर्शनके आधारभूत मुख्य मुद्दे है — त्रिलक्षण परिणामवाद, अनेकान्तदृष्टि और स्याद्वाद | आत्माकी स्वतन्त्र सत्ता तो एक ऐसी आधारभूत शिला है जिसके माने बिना बन्ध-मोक्ष की प्रक्रिया ही नही बन सकती । प्रमेयका षट् द्रव्य, सात तत्त्व आदिके रूपमे विवेचन तो विवरण की बात है । भगवान् ऋषभदेवके बाद अजितनाथ आदि २३ तीर्थकर और हुए है और इन सब तीर्थकरोंने अपने-अपने युगमे इसी सत्यका उद्घाटन किया है । तीर्थकर नेमिनाथ : बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ नारायण कृष्णके चचेरे भाई थे । इनका जन्मस्थान द्वारिका था और पिता थे महाराज समुद्रविजय । जब इनके विवाहका जुलूस नगरमे घूम रहा था और युवक कुमार नेमिनाथ अपनी भावी संगिनी राजुलकी सुखसुषमाके स्वप्नमे झूमते हुए दूल्हा बनकर रथमें सवार थे उसी समय बारात में आये हुए मांसाहारी राजाओंके स्वागतार्थ इकट्ठे किये गये विविध पशुओंकी भयङ्कर चीत्कार कानोंमें पड़ी । इस एक चीत्कारने नेमिनाथ के हृदयमें अहिंसाका सोता फोड़ दिया और उन दयामूर्तिने उसी समय रथसे उतरकर उन पशुओंके बन्धन अपने हाथों खोले । विवाह की वेषभूषा और विलासके स्वप्नोंको असार समझ भोगसे योगकी ओर अपने चित्तको मोड़ दिया और बाहर-भीतरकी समस्त गाँठोंको
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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