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________________ ४ जैनदर्शन इनने समस्त आत्माओंको स्वतन्त्र परिपूर्ण और अखण्ड मौलिक द्रव्य मानकर अपनी तरह समस्त जगत्‌के प्राणियोंको जीवित रहनेके समान अधिकारको स्वीकार किया और अहिंसाके सर्वोदयी स्वरूपकी संजीवनी जगत्को दी । विचार-क्षेत्रमें अहिंसाके मानस रूपकी प्रतिष्ठा स्थापित करनेके लिये आदिप्रभुने जगत् के अनेकान्त स्वरूपका उपदेश दिया । उनने बताया कि विश्वका प्रत्येक जड़-चेतन, अणु-परमाणु और जीवराशि अनन्त गुण-पर्यायोंका आकर है। उसके विराट् रूपको पूर्ण ज्ञान स्पर्श भी कर ले, पर वह शब्दोंके द्वारा कहा नही जा सकता। वह अनन्त ही दृष्टिकोणोंसे अनन्त रूपमें देखा जाता और कहा जाता है । अतः इस अनेकान्तमहासागरको शान्ति और गम्भीरतासे देखो । दूसरेके दृष्टिकोणोंका भी आदर करो; क्योंकि वे भी तुम्हारी ही तरह वस्तुके स्वरूपांशोंको ग्रहण करनेवाले है । अनेकान्तदर्शन वस्तुविचारके क्षेत्रमें दृष्टिकी एकाङ्गिता और संकुचिततासे होनेवाले मतभेदोंको उखाड़कर मानस - समताकी सृष्टि करता है और वीतराग चित्तकी सृष्टिके लिये उर्वर भूमि बनाता है । मानस अहिंसाके लिये जहाँ विचारशुद्धि करनेवाले अनेकान्तदर्शनकी उपयोगिता है वह वचनकी निर्दोष पद्धति भी उपादेय है, क्योंकि अनेकान्तको व्यक्त करनेके लिये 'ऐसा ही है' इस प्रकारकी अवधारिणी भाषा माध्यम नहीं बन सकती । इसलिये उस परम अनेकान्त तत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये 'स्याद्वाद' रूप वचनपद्धतिका उपदेश दिया गया। इससे प्रत्येक वाक्य अपनेमें सापेक्ष रहकर स्ववाच्यको प्रधानता देता हुआ भी अन्य अंशोंका लोप नहीं करता, उनका तिरस्कार नहीं करता और उनकी सत्तासे इनकार नहीं करता । वह उनका गौण अस्तित्व स्वीकार करता है । इसीलिये इसे धर्मतीर्थंकरोंकी 'स्याद्वादी' के रूपमें स्तुति की जाती है, जो इनके तत्त्वस्वरूपके प्रकाशनकी विशिष्ट प्रणालीका वर्णन है । १. “धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः । ऋषभादिमहावीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥” – लषी० श्लो० १ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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