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________________ सामान्यावलाकन इन प्रजापति ऋषभदेवने अपने राज्यकालमें जिस प्रकार व्यवहारार्थ राज्यव्यवस्था और समाज-रचनाका प्रवर्तन किया उसी तरह तीर्थकालमें व्यक्तिकी शुद्धि और समाजमें शान्ति स्थापनके लिये 'धर्मतीर्थ' का भी प्रवर्तन किया । अहिंसाको धर्मकी मूल धुरा मानकर इसी अहिंसाका समाजरचनाके लिए आधार बनानेके हेतुसे सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह आदिके रूपमें अवतार किया। साधनाकालमें इनने राज्यका परित्याग कर बाहर. भीतरकी सभी गांठें खोल परम निर्ग्रन्थ मार्गका अवलम्बन कर आत्मसाधना की और क्रमशः कैवल्य प्राप्त किया। यही धर्मतीर्थके आदि प्रवर्तक थे। ___ इनकी ऐतिहासिकताको सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ० हर्मन जैकोबी और सर राधाकृष्णन् आदि स्वीकार करते है। भागवत (५।२-६ ) में जो ऋषभदेव का वर्णन मिलता है वह जैन परम्पराके वर्णनसे बहुत कुछ मिलता जुलता है । भागवत में जैनधर्मके संस्थापकके रूपमें ऋषभदेवका उल्लेख होना और आठवें अवतारके रूपमें उनका स्वीकार किया जाना इस बातका साक्षी है कि ऋषभके जैनधर्मके संस्थापक होनेकी अनुश्रुति निर्मूल नहीं है । बौद्धदर्शनके ग्रन्थोंमें दृष्टांताभास या पूर्वपक्षके रूपमें जैनधर्मके प्रवर्तक और स्याद्वादके उपदेशकके रूपमें ऋषभ और वर्धमानका ही नामोल्लेख पाया जाता है। धर्मोत्तर आचार्य तो ऋषभ, वर्धमानादिको दिगम्बरोंका शास्ता लिखते है। इन्होंने मूल अहिंसा धर्मका आद्य उपदेश दिया और इसी अहिंसाकी स्थायी प्रतिष्ठा के लिये उसके आधारभूत तत्त्वज्ञानका भी निरूपण किया। १. खंडगिरि-उदयगिरिकी हाथोगुफाके २१०० वर्ष पुराने लेखसे ऋषभदेवकी प्रतिमा को कुलक्रमागतता और प्राचीनता स्पष्ट है। यह लेख कलिंगाधिपति खारवेलने लिखाया था। इस प्रतिमाको नन्द ले गया था। पीछे खारवेलने इसे नन्दके ३०० वर्ष बाद पुष्यमित्रसे प्राप्त किया था। २. देखो, न्यायबि० ३३१३१-३३ । तत्त्वसंग्रह ( स्याद्वादपरीक्षा )। ३. "यथा ऋषभो वर्धमानश्च. तावादी यस्य स ऋपभवर्धमानादिः दिगम्बराणां शास्ता सवंश आप्तश्चेति ।"-न्यायबि० टीका ३३१३१ ।
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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