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________________ जैनदर्शन है। शिक्षा, दोक्षा, संस्कार, प्रयत्न और पुरुषार्थ, सबका उत्तर भवितव्यता। न कोई तर्क है, न कोई पुरुषार्थ और न कोई बुद्धि । अग्निसे धुंआ क्यों हुआ? ऐसा होना ही था। फिर गीला इंधन न रहने पर धुंआ क्यों नहीं हुआ ? ऐसा ही होना था। जगत्में पदार्थोंके संयोगवियोगसे विज्ञानसम्मत अनन्त कार्यकारणभाव हैं । अपनी उपादान-योग्यता और निमित्त-सामग्रीके संतुलनमें परस्पर प्रभावित, अप्रभावित या अर्धप्रभावित कार्य उत्पन्न होते हैं। वे एक दूसरेके परिणमनके निमित्त भी बनते हैं । जैसे एक घड़ा उत्पन्न हो रहा है । इसमें मिट्टी, कुम्हार, चक्र, चीवर आदि अनेक द्रव्य कारणसामग्रीमें सम्मिलित हैं। उस समय न केवल घड़ा ही उत्पन्न हुआ है किन्तु कुम्हारकी भी कोई पर्याय, चक्रकी अमुक पर्याय और चीवरको भी अमुक पर्याय उत्पन्न हुई है। अतः उस समय उत्पन्न होनेवाली अनेक पर्यायोंमें अपने-अपने द्रव्य उपादान हैं और बाकी एक दूसरेके प्रति निमित्त हैं। इसी तरह जगत्में जो अनन्त कार्य उत्पन्न हो रहें उनमें तत्तत् द्रव्य, जो परिणमन करते हैं, उपादान बनते हैं और शेष निमित्त होते हैं-कोई साक्षात् और कोई परम्परासे, कोई प्रेरक और कोई अप्रेरक, कोई प्रभावक और कोई अप्रभावक। यह तो योगायोगकी बात है। जिस प्रकारको बाह्य और आभ्यन्तर कारणसामग्री जुट जाती है वैसा ही कार्य हो जाता है । आ० समन्तभद्रने लिखा है"बाह्येतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः।" -बृहत्स्व० श्लो० ६० । अर्थात् कार्योत्पत्तिके लिए बाह्य और आभ्यन्तर-निमित्त और उपादान दोनों कारणोंकी समग्रता-पूर्णता ही द्रव्यगत निज स्वभाव है। ऐसी स्थितिमें नियतिवादका आश्रय लेकर भविष्यके सम्बन्धमें कोई निश्चित बात कहना अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावकी व्यवस्थाके सर्वथा विपरीत है । यह ठीक है कि नियत कारणसे नियत कार्यको उत्पत्ति होती
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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