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________________ लोकव्यवस्था है और इस प्रकारके नियतत्वमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। पर इस कार्यकारणभावकी प्रधानता स्वीकार करनेपर नियतिवाद अपने नियतरूपमें नहीं रह सकता। कारण हेतु : __ जैनदर्शनमें कारणको भी हेतु मानकर उसके द्वारा अबिनाभावी कार्यका ज्ञान कराया जाता है। अर्थात् कारणको देखकर कार्यकारणभावकी नियतताके बलपर उससे उत्पन्न होनेवाले कार्यका भी ज्ञान करना अनुमानप्राणालीमें स्वीकृत है। हां, उसके साथ दो शर्ते लगी है-'यदि कारणसामग्रीको पूर्णता हो और कोई प्रतिबन्धक कारण न आवें, तो अवश्य ही कारण कार्यको उत्पन्न करेगा।' यदि समस्त पदार्थोका सब कुछ नियत हो तो किसी नियत कारणसे नियत कार्यकी उत्पत्तिका उदाहरण भी दिया जा सकता था; पर सामान्यतया कारणसामग्रीकी पूर्णता और अप्रतिबन्धका भरोसा इसलिए नहीं दिया जा सकता कि भविष्य सुनिश्चित नहीं है। इसीलिये इस बातकी सतर्कता रखी जाती है कि कारणसामग्रीमें कोई बाधा उत्पन्न न हो। आजके यन्त्रयुगमें यद्यपि बड़े-बड़े यन्त्र अपने निश्चित उत्पादनके आँकड़ोंका खाना पूरा कर देते है पर उनके कार्यकालमे बड़ी सावधानी और सतर्कता वरती जाती है। फिर भी कभी-कभी गड़बड़ हो जाती है । बाधा आनेकी और सामग्रीकी न्यूनताको सम्भावना जब है तब निश्चित कारणसे निश्चित कार्यकी उत्पत्ति संदिग्धकोटिमें जा पहुँचती है। तात्पर्य यह कि पुरुषका प्रयत्न एक हदतक भविष्यकी रेखाको बाँधता भी है, तो भी भविष्य अनुमानित और सम्भावित ही रहता है । नियति एक भावना है। इस नियतिवादका उपयोग किसी घटनाके घट जानेपर सांस लेनेके लिये और मनको समझानेके लिए तथा आगे फिर कमर कसकर तैयार हो जानेके लिए किया जा सकता है, और लोग करते मी है, पर इतने मात्रसे
SR No.010346
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1966
Total Pages639
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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