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________________ ( ९७, ) श्रानन्द श्रावक का यह कार्य उसके आगार के अर्न्तगत भी नहीं श्राता है। भोजन कराने आदि मन से ही किया था, राजा गण, बळवान, था कि तुम सब को द्वारा रखे गये किसी क्योंकि उसने सब को विषयक जो निश्चय किया था, वह अपने ऐसा शास्त्र का स्पष्ट पाठ है। उससे गुरुजन आदि किसी ने भी यह नहीं कहा भोजन कराओ या वस्त्रादि दो । कुछ देना पाप होता, आनन्द श्रावक ने अपने इस कार्य के लिए कोई प्रायश्चित भी नहीं लिया था । और तो क्या, उसने सबको खिलाने का जो निश्चय किया था, वह भी धर्म जागरणा करते हुए | यदि पुरजन आदि किसी को खिलाना श्रथवा किसी को कार्य तो आनन्द श्रावक ऐसा पाप क्यों करता ? उसने यह भूल से किया हो, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि शास्त्र का यह पाठ स्पष्ट है कि आनन्द श्रावक ने जो व्रत लिये थे, या जो प्रतिज्ञा की थी उनका अर्थ भी भगवान से समझ लिया था । यदि तेरह - पन्थियों के कथनानुसार मित्र, ज्ञाति सम्बन्धी आदि को खिलाना -पिलाना या देना पाप होता तो आनन्द श्रावक के लिए ऐसा कोई कारण न था, जो वह ऐसा पाप करता क्योंकि श्रानन्द श्रावक ने यह कार्य विशेष निवृत्ति बढ़ाते समय श्रावकपने में किया था। इस प्रकार इस पाठ से सिद्ध है कि
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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