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________________ ( ९८ ), (१.) आनन्द श्रावक ने जो अभिग्रह किया था, वह अन्य तीर्थी साधुओं को गुरु बुद्धि से देने के विषय में ही था । साधुओं के सिवाय और किसी को भोजन कराना या कुछ देना पाप है, इस दृष्टि से आनन्द का अभिप्रद नहीं था । : २) मित्र, स्नेही, ज्ञाति तथा अन्य लोगों को खिलानापिलाना या वखादि देना पाप नहीं है। यदि पाप होता, तो आनन्द श्रावक यह पाप क्यों करता, जब कि वह विशेष निवृति करने जा रहा था। और श्रभिग्रह भंग करके करता तो विराas माना जाता आलोचना भी करता, सो कुछ भी अधिकार उपासक दशांग में नहीं है । आनन्द श्रावक के लिए यह बात भो ध्यान में रखने योग्य है कि आनन्द श्रावक सब के लिए आधार भूत था । आनन्द श्रावक के वर्णन में यह बात कई बार थाई है कि आनन्द श्रावक सब के लिए श्राधार था और आनन्द श्रावक ने अपने लड़के से भी यही कहा था, कि तुम भी सबके लिए आधार होकर विचरना। कोई भी आदमी किसी के लिए तभी आधार हो सकता है, जब कि वह आधार बना हुआ व्यक्ति श्रधेय व्यक्ति के प्रति उदारता पूर्ण व्यवहार रखे, और आधेय व्यक्ति को समय २ पर कुछ देता भी ; " रहे, उनका कष्ट भी मिटाता रहे! बिना ऐसा किये कोई भी व्यक्ति 2
SR No.010339
Book TitleJain Darshan me Shwetambar Terahpanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShankarprasad Dikshit
PublisherSadhumargi Jain Shravak Mandal Ratlam
Publication Year1942
Total Pages195
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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