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________________ २३८ . जैनबालवोधक"दिन ऐसा कर मुनि उसी कोटरमें पुस्तक रखकर चले • गए । गोविंदने फिर शास्त्र निकाल लिए और पूर्वकी तरह पूजा करने लगा। वह ग्वाला निदानसे मरकर उसी नगरमें ग्रामकूटका पुत्र कौंडेश राजपुत्र हुआ और थोडे दिन बाद जब वह बडा हो गया तो उन्हीं पद्मनंदो मुनिको देखकर पूर्वभवका स्मरण कर वैराग्यको माप्त हो गया और उन्ही मुनि महाराजके पास कोंडेश नामके बड़ेभारी मुनि हो गए जो द्वादशांगका अध्ययनका श्रुतकेवली हो गए । ठोक है जव शास्त्रदानके प्रभावसे केवली पद प्राप्त हो सकता है तो श्रुतकेवलीपदका प्राप्त कर लेना कोई आश्चर्य नहीं है जैसा :कि गोविंद के जीवने प्राप्तकिया। ६८. श्रावकाचार दशम भाग। सक्लेखना या संन्यास मरणका स्वरूप । 'आजावे अनिवार्य जरा, दुष्काल रोग या कष्ट महान | धर्महेतु तव तनु तज देना, सल्लेखना मरण सो जान ॥ अंत समयका सुधार करना, यही तपस्याका है फल । अतः समाधिमरण हित भाई, करते रहो प्रयत्न सकल ॥ उपाय रहित बुढापा, दुष्काल, वा रोग या उपसर्ग माने ' पर धर्म धारण कर शरीरको तजदेना सोसल्लेखना वासन्यास
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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