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________________ २३६ तृतीय भाग। ‘मरण है अंत समयकी क्रियाको सुधार करना ही तमाम उमरके तपका फल है ऐसा समस्त मतालंबी कहते हैं। इस कारण जहांतक वन सके समाधिमरणपूर्वक मरनेमें प्रयत्न करना चाहिए ॥१२॥ समाधिमरण करने की विधि। स्नेह वैर संबंध परिग्रह, छोड शुद्धमन त्यों होकर । क्षमा करै निजजन परिजनको, याचे क्षमा स्वयं सुखकर ।। कृत कारित अनुमोदित मारे, पापोंका कर आलोचन । निश्छल जीवनभरको धारै, पूर्ण महावन दुग्बमोचन ।।९३॥ समाधिमरणके समय राग द्वेष संबंध, वाहयाभ्यन्तर 'परिग्रह छोडकर शुद्धांतःकरण होकर प्रियवचनोंसे अपने कुटुंबियों व नोकर चाकरोंसे नपा करा और अपने आप भी उन्हें क्षमा कर देवे। तत्पश्चात् छल कपटरहित कृत कारित अनुमोदनासे किए हुए समस्त पापोंकी मालोचना करके मरणपर्यंततक पांच महाव्रत धारण करै ॥ ९३॥ शोक दुःख भय भरति कलुपता, तज विषादकी त्यों ही श्राह । शास्त्रसुधाको पीते रहना, धारणकर पूग उत्साह ॥ भोजन तजकर रहै दूधपर, दूध छोडकर छाछ गहै। 'छाछ छोड ले प्रासुक जलको, उसे छोड उपवास लहै ।। कर उपवास अपनी शक्तिसे, सर्व यत्नसे निज मनको । णमोकारमें तन्मय करदे, तज देवे नश्वर तनको ।। ,
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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