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________________ १८६ जैनवालबोलधकलंधे गिरि सायर दिवायरसे दिपै जिन्हों, .. कायर किये हैं भट कोटिन हुँकारसौं । ऐसे महामानी मौत आये उन हार मानी, ___ क्योंहि उतरे न कभी मानके पहारसौं। देवसों न हारे पुनि दानेसौं न हारे और, काइसौं न हारे एक हारे होनहारसौं ॥१॥. कालकी सामर्थ्य । लोहमयी कोट कोई कोटनकी ओट करो, कांगुरेन तोप रोपि राखो पैंट मेरिक। इंद्र चंद्र चौंकायत चौकस है चौकी देहु, चतुरंग चमू चहुं ओर रहो घेरिक । तहां एक भोंवरा बनाय वीच बैठो पुनि, बोलो मति कोउ जो बुलावै नाम टेरिके। ऐसे परपंच पांति रखों क्यों न भांति भांति, कैसेहून छोरै जम देखो हम हेरिक ॥२॥ मत्तगयंद सवैया। अंतकसौं न छुटै निहचैपर, मूरख जीव निरन्तर धूजे चाहत है चितमें नित ही सुख, होय न लाभ मनोरथ पूजै ।। तौ पन मूढ़ बध्यो भय आस, वृथा बहु दुःख दवानल भूजे । छोडविचच्छन ये जड लच्छन, धीरज धारो सुखी कि न हूने ।। १ सागर समुद्र । २ दिवाकर-सूर्य । ३ दानव-दैत्य । ४ किंवार लगाकर । ५ चौकनें । ६ सेना । ७.यमराज मृत्युसे। ८ कांपै-हरै -
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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