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________________ १७८ जैनबालबोधकदंगा ? मैने तो सिर्फ इतना ही कहा था कि तुम मेरे साथ चलो मैं तुम्हारे परिश्रमके अनुकूल तुम्हे कुछ धन देदूंगा इसलिये भापको में उतना देनेके लिये अवश्य तयार हूं। धनदेवने जब जिनदेव की ऐसी बातें सुनी तो उसने न्यायालयमें जाकर राजा व अन्यजनों के समक्ष अपना सब किस्पा कह सुनाया उसी समय गजाने जिनदेवको बुलाया और प्रत्य २ कह देनेको कहा परंतु जिनदेखने मत्यव्रतकी कुछ परवाह न करके पूर्वोक्त ही कहा। अव तो राजा बडे सन्देहमें पड गया और विचारने लगा-इनकी परीक्षा कैसे की जाय कि इन्हमें कौन सच्चा है और कौन झूठा, थोडी देरमें राजा को एक युक्ति सूझ पडो और बोला कि इन दोनोंके हायोपर जलते हुर अंगारे रख दो । इनमें मो सच्चा होगा उसके हाथ न जलेंगे और झूठेके जल जायेंगे । राजाके ऐसे वचन सुनते ही जिनदेवका खून सूख गया । उपर राजाने वैसा ही किया । धनदेव तो अंगारेको बडो आसानीसे रक्खे रहा, उसे यह भी मालूम नहिं पडा कि मेरे हाथ पर अग्नि रक्खी है या और कुछ, किंतु जिनदेवका हाथ अमिपर रखते ही जलने लगा और उसके तेजको न सहन कर.जिनदेव ने शीघ्र हायसे अग्नि गिरा दी। यह देखते ही राजा व अन्य सबोंको विश्वास होगया कि जिनदेव विशाल मूगा है। बस! राजाने धनदेवको ही सब-धन दिवा दिया और जिनदेवको ठगी और मूंग इत्यादि शब्द कहकर अपने दरवार
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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