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________________ १७६. जैनवालबोधक क्लेश पहुंचै ऐसा वाणिज्य तथा हिंशा, आरंभ, ठगाई हो, उसे पापोपदेश नामा अनर्थ दंड कहते हैं ॥ ६४ ॥ अपध्याननामा अनर्थ दंड | राग द्वेषके वशमें होकर, करते रहना ऐसा ध्यान । उसकी स्त्री सुत सर जावे, नश जावे उसके धनधान ॥ वह मर जावे, वह कट जावे, उसको होवे जेल महान । वह लुट जावे, संकट पावे, हे अनर्थ दण्डक प्रपध्यान ॥ राग द्वेषके वशीभूत होकर किसीके स्त्री पुत्रादिकोंका बुरा चाहना वा परजाने, केंद्र होने, लुट जाने, आदिका हर समय चितवन करना सो अपध्यान नामा अनर्थ दंड है ॥ दुःश्रुतिनाम अर्थ दंड | जिनके कारण से जागृत हों, राग द्वेष मदं काम विकार | आरंभ साहस और परिग्रह, त्यों छावै मिथ्यात्व विचार || मन मैला जिनसे हो जाये, प्यारे सुनना ऐसे ग्रंथ | दुःश्रुतिनाम अर्थ कहाता, कहते हैं ज्ञानी निर्यय ॥ ६५ ॥ जिन ग्रन्थोंके पढने सुनने से, राग द्वेष पद काम विकार उत्पन्न हो तथा आरम्भ, दुःसाहस, परिग्रह, मिथ्यात्वमें रत हो जावें ऐसे ग्रंथों का पढना सुनना दुःश्रुति नामका अनर्थ - दंड कहलाता है ॥ ६६ ॥ • ! अनर्थदंड के पांच अतीचार | राग भावसे हँसी दिल्लगी, करना अँड वचन कहना । बकबक करना अखि लडाना, कार्य कुचेष्टाका बहना ॥
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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