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________________ जैनवालवोधकतेई फिर पाय नांगे कांगे पगमारते । एते पै अयाने गरगने रहैं विभौ पाय, धिक है समझ ऐसी धर्म ना विसारते ॥ ७॥ देखो भर जोवनमें पुत्रको वियोग आयो, तैसें ही निहारी निज नारि काल मगरें । जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पै, रंक भये फिर तेज पनही न पग में॥ एते पैअभागे यन जीतवसौं धरै राग, . होय न विराग जाने रहगो अलग मैं । आँखिन विलोकि अंध मुसेकी अधेरी करे, ऐसे राज रोगको इलाज कहा जगमें ॥ ८॥ ___ दोहा। जैन वचन अंजन वटी, अाज सुगुरु प्रवीन । राग तिमिर तउ ना मिटे, बडो रोग लख लीन॥९॥ जोई दिन कटै सोई आवमै अवश्य घटे, ... बूंद बूंद बीते जैसे अंजुलीको जल है। - देह नित छीन होत नैन तेज हीन होत, १२ अजान मुर्ख। १३ संपत्ति घन । १४ दीखते । १५ सरगोसकी समान भयात् खरगोसका कोई पीछा करता है तो थक जाने पर एक जगह भांस मीचकर निर्भय हो बैठ जाता है और अपने मनमें समझ लेता है * भव मुझे कोई नहीं देखता । १६ मायुनें ११७ विवम् पुरानी।
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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