SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 117
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय भाग । संसारी जीवका चितवन | चाहत है घन होय किसी विध, तौ सब काज सरै जियरा जी । गेड चिनीय करूं गहना कंछु, व्याहि सुता सुत वांटिय भौजी || चितत यौं दिन जांहि चले, जम आनि अचानक देत दगाजी । खेलत खेल खिलार गये, रहि जाय रुँपी शतरंजकी बाजी || तेज तुरंगें -सुरंग भले रथ, मत्त मैतंग उतंग खरे ही । दास खवास वाटा, धन जोर करोरन कोश भरे हो ॥ ऐसे बढे तौ कहा भयो एनर, छोरि चले उठि अंत छेरे ही । - धाम खरे रहे. काम परे रहे, दाम डेरे रहे ठाम घरे ही ॥ ६ ॥ अभिमान निषेध | कवित्त मनहर | कंचन भंडार भरे मोतिनके पुंज परे, घने लोग द्वार खरे मारग निहारते । जानें चढि डोलत हैं झीने सुर बोलत हैं, काकीहू और नेक नीके न चितारते ॥ कोलौं धन खांगे को कहै यौं न, लांगे चिनाकर-बनाकर २ विवाह वगेरह उत्सवोंमें जो मिष्टान बांटा नाता है उसे भाजी कहते हैं । ३ जमी हुई । ४ घोडा | ५ हाथी | ६ नाई बगेरह खुसामदी । ७ खजाना । ८ अकेलेही । ९ पढे रहे जहांके तहां । यान-स्रवरी ११ कब तक- धन खांयगे बहुत धन है कोई ऐसा मत कहो : " क्योंकि वेही फ़िर लांगे होकर नंगे पैर फिरेंगे. कंगले बनकर पराये पैर. 1 ( जूतिया ) झाडकर उदर निर्वाह करेंगे । १०६ :
SR No.010333
Book TitleJain Bal Bodhak 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages263
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy