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________________ ६६ ] जैन अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास माँगा करता था । गोशाला मे पैदा होने के कारण उसने अपने पुत्र का नाम गोगाल रखा । पुत्र जव वडा हुआ तो उसने अपने पिता के व्यवसाय को सीखकर भिक्षा मांगना प्रारम्भ कर दिया । एक समय वह राजगृह में आया और नालदा मे ततुगाला में ठहरा । महावीर भी उसी समय वहाँ उपस्थित थे । गोशाल ने महावीर से उसे अपना शिष्य बना लेने की प्रार्थना की, जिसे महावीर ने स्वीकार किया । गोगाल ६ वर्ष तक महावीर के साथ रहे, किन्तु वाद मे उनका महावीर से मतभेद हो गया और वे उनके सघ से अलग हो गए। अलग होने के बाद गोशाल ने तपस्या द्वारा इन्द्रजाल विद्या का अभ्यास किया और अपने को "जिन" कहकर आजीविक सम्प्रदाय के नेता बन गए । कुम्भकार सद्दालपुत्त तथा उनकी पत्नी हालाहला, आजीविक सम्प्रदाय की थी । सावत्थी तथा पोलासपुर सभवत इस सम्प्रदाय के केन्द्र थे । आजीविक सम्प्रदाय के मत का जो विवरण जेनागम तथा वौद्धसाहित्य मे अनेक जगहों पर मिलता है वह लगभग एक-सा ही है । उवास गदगाओ मे महावीर तथा आजीविकोपासक सद्दालपुत्त के वार्तालाप का विवरण है, जिससे उनके सिद्धान्त का पता लगता है | सूत्रकृताग मे इस वाद को नियतिवाद कहा गया है । "जीव के सुखदु.ख आदि स्वय किए हुए नही है, वे तो दैवनियत है । " २ किसी व्यक्ति अथवा वस्तु के जीवन मे उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पौरुप, पराक्रम कुछ नही कर सकते, क्योकि ससार के सपूर्ण पदार्थ अपनेअपने स्वभाव मे नियत ( स्थित ) है । " 3 वौद्ध ग्रन्थो मे आजीविको के मत का निम्न प्रकार वर्णन है । " इस संसार मे प्राणियो के क्लेश का न कोई हेतु है और न कोई प्रत्यय ( कारण ) है । मनुष्य के पराक्रम पर कुछ भी निर्भर नही है क्योकि इस संसार मे आत्मकार, परकार, वल, वीर्य, पुरुषार्थ, पराक्रम नाम की कोई वस्तु नही है । समस्त प्राणी नियतिवग होकर सुख-दुख का अनुभव करते है । "४ १ भगवती सूत्र, १५ २. सूत्र कृताग, १२ ३ उवासगदसाओ, ७. दीघनिकाय, सामञ्जफलसुत्त.
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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