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________________ षष्ठ अध्याय श्रमण- जीवन [ २०१ की ओर उतनी ही दत्ति पानी की ग्रहण की जाती है । प्रत्येक प्रतिमा का समय एक एक मास का है केवल दत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि के कारण ये द्विमासिकी, त्रमासिकी आदि कही जाती है । अष्टम प्रतिमा - यह प्रतिमा सात दिन रात की होती है। इसमे नगर के बाहर, उपवासपूर्वक उत्तानासन (आकाश को ओर मुँह करके सीधा लेटना) अथवा निपद्यासन (पैरो को बराबर करके वैठना) से ध्यान लगाना होता है । नवमप्रतिमा - यह प्रतिमा भी सात दिनरात की होती है । इसमे नगर के बाहर; उपवासपूर्वक दण्डासन, लगुडासन अथवा उत्कटुकासन से ध्यान किया जाता है । दशमप्रतिमा - यह प्रतिमा भी सात दिनरात की होती है । इसमे नगर के बाहर, उपवासपूर्वक गोदोहासन, वीरासन अथवा आम्रकुब्जासन से ध्यान किया जाता है । एकादश प्रतिमा - यह प्रतिमा एक दिनरात की होती है । इसमें उपवासपूर्वक नगर के बाहर दोनो हाथो को घुटने की ओर लंबा करके दण्डायमान रूप मे खडे होकर कायोत्सर्ग किया जाता है । द्वादशप्रतिमा - यह प्रतिमा केवल एक रात्रि की है। इसमे उपवासपूर्वक नगर के बाहर श्मशान मे या शून्यस्थान में खड़े हो कर, मस्तक झ ुका कर, एक वस्तु पर दृष्टि रख कर, निर्निमेप नेत्रो' से निश्चलतापूर्वक कायोत्सर्ग किया जाता है । संल्लेखना तथा मरणोत्तर विधान संल्लेखना - निरन्तर तपश्चर्या करने से या अतिवृद्धावस्था के कारण अथवा असाध्य रोग के कारण शरीर के कृश, शुष्क, निर्मा स तथा अस्थिचर्ममात्र रह जाने से अथवा अपना आयुष्य निकट जान कर या किसी मित्रदेव द्वारा सावधान करने पर साधक द्वारा अनशन करके शरीर को कृश करने के साथ-साथ विषयो और कषायो को कृश करना संल्लेखना है । अनुत्तरौपपातिकदशाग मे धन्य अनगार के तपश्चरण से उत्पन्न शारीरिक दशा का वर्णन किया गया है " - "धन्य अनगार के अनुत्तरोपपातिकदशांग, ३ १
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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