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________________ २०० । जैन-अगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास ध्यान-एक विषय मे अन्त करण की वृत्ति को टिकाना-स्थापित करना ध्यान है। इसके चार भेद है.--१ आर्तध्यान, २. रौद्रध्यान, ३ धर्मध्यान, ४. शुक्लध्यान । दुख मे पीडित होने पर वारवार शोक, विलाप आदि करना, चिन्ताग्रस्त हो जाना आर्तध्यान है। हिसादि पापो को क्रियान्वित करने का विचार करना रौद्रध्यान है धर्म के सम्बन्ध मे विविध प्रकार से चिन्तन करना धर्मध्यान है। आठ प्रकार के कर्म-मल से रहित आत्मा एवं आत्मा से सम्बन्धित ज्ञानादि गुणो, शक्तियो आदि का शुद्ध चिन्तन करना, शुक्लध्यान है। इन चारो मे प्रारभ के दो ध्यान संसार के कारण होने से हेय तथा अन्त के दो, मुक्ति के कारण होने से उपादेय हैं। उत्सर्ग-बाह्य तथा आभ्यन्तर उपधि (ग्रन्थि) का त्याग करना उत्सर्ग है । धन, धान्य, मकान, क्षेत्रादि वस्तुएँ वाह्य उपधि है तथा क्रोध, मान, माया, लोभादिरूप मनोविकार आभ्यन्तर उपधि है। प्रतिमा-विशिष्ट संहनन (शरीरयोग्यता) वाले भिक्षुओ की प्रतिज्ञाएँ प्रतिमा है। वे १२ प्रकार की है-१ मासिकी, २ द्विमासिकी, ३ त्रैमासिकी; ४ चतुर्मासिकी, ५. पचमासिकी, ६. पाण्मासिकी, ७ सप्तमासिकी, ८ प्रथमा सप्तराविन्दिवा, ६. द्वितीया सप्तरात्रिन्दिवा १० तृतीया सप्तराविन्दिवा, ११. अहोरात्रिकी, १२. एकरात्रिकी। __ प्रथम प्रतिमा-प्रथमप्रतिमाधारी भिक्षु को एकदत्ति आहार और एकदत्ति जल लेना चाहिए । साधु के पात्र मे दाता द्वारा दिये जाने वाले आहार और जल की धारा जव तक अखंड बनी रहे, उसका नाम दत्ति है । धारा खंडित होने पर दत्ति की समाप्ति हो जाती है। इस प्रतिमा का काल एकमास है। द्वितीय-सप्तम प्रतिमा-दो दत्ति आहार की तथा दो दत्ति पानी की लेना द्वितीयप्रतिमा है । इसी प्रकार तृतीय, चतुर्थ, पंचम, पष्ठ तथा सप्तम प्रतिमाओ मे क्रमश ३, ४, ५, ६, और ७ दत्ति आहार २ वही, २४७ ३. समवायाग, १२ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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