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________________ षष्ठ अध्याय : श्रमण-जीवन [ १६५ समिति-समिति के पाँच भेद है।-१. ईसिमिति, २ भापासमिति ३. एपणासमिति, ४. आदानभाण्डामत्रनिक्षेपणासमिति ५. उच्चारप्रस्रवणग्वेलसिंघाणजल्लपरिप्ठापन-समिति । किसी भी जन्तु को क्लेश न हो, इस कारण सावधानीपूर्वक चलना ईर्यासमिति है। सत्य, हितकारी, परिमित और सदेहरहित बोलना भाषासमिति है। भिक्षा से सम्बन्धित ४२ दोषो का निराकरण करते हुए धर्मपालन के लिए शुद्ध तथा सात्विक भोजन ग्रहण करना एषणासमिति है। वस्तुमात्र को भलीभॉति देखभाल कर एवं प्रमार्जित कर उठाना या रखना आदान-भाण्डामत्रनिक्षेपणासमिति है। जीवजन्तुरहित निरवद्य स्थान पर अच्छी तरह देखभाल कर मल, मूत्र, नासिका-मल थंक आदि का परिष्ठापन करना (डालना) उच्चारप्रस्रवणखेलसिंघाणजल्लपरिष्ठापनसमिति है। गुप्ति-गुप्ति के तीन भेद है -१. कायगुप्ति २. वचनगुप्ति तया ३. मनोगुप्ति । किसी वस्तु के लेने, रखने अथवा उठने, बैठने, चलने आदि मे कर्तव्याकर्तव्य के विवेकपूर्वक शारीरिक व्यापार का नियमन करना कायगुप्ति है। वोलने के प्रत्येक प्रसंग पर या तो वचन पर नियंत्रण करना अथवा मौन धारण कर लेना वचनगुप्ति है। दुष्ट सकल्प अयवा मिश्रित (अच्छे वुरे) सकल्प का त्याग करना और अच्छे सकल्प का सेवन करना मनोगुप्ति है। . धर्म-साधु को जो श्रमणधर्म मे धारण (स्थिर) करते है, वे धर्म है। इनकी संख्या १० है 3-१ क्षान्ति, २. मुक्ति, ३ आर्जव, ४ मार्दव, ५ लाघव ६ सत्य, ७ सयम, ८. तप, ६. त्याग, १० ब्रह्मचर्यवास। क्षान्ति का अर्थ है-सहनशीलता, अर्थात क्रोध को उत्पन्न न होने देना अयवा उत्पन्न हुए क्रोध को विवेकवल से दवा देना । हृदय मे लोभकषाय का अभाव होना मुक्ति-निर्लोभता है। भाव की विशुद्धि अर्थात विचार, भाषण तथा प्रवृत्ति की एकरूपता सरलता ही आर्जव है। चित्त मे मृदुता और बाह्यव्यवहार मे नम्रवृत्ति १ वही ५। २ समवायाग ३ । ३ वही १० तथा स्थानाग ७१२, पृ० ४४६ ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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