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________________ १९४] जैन-अंगगास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विज्ञान पयोगी वस्तुओ की परिमित मात्रा में तथा बहुत कम बार (दफा) याचना करता है।' सर्वमैयुनविरमण-देव, मनुप्य नया तियं च-सम्बन्धी मैथन का जीवनपर्यन्त त्याग करना सर्वमेयनविरमण है । इस व्रत का धारक श्रमण मन, वचन तथा काया से किसी भी प्रकार के मंथुन का सेवन न स्वय करता है, न मरो से करता है और न इस कार्य में किसी प्रकार की अनुमोदना ही करता है । इस व्रत के निर्दोप पालन के लिए वह स्त्रीसम्वन्धी विकथा नही करना, स्त्रियो के मनोहर अगों को नही देखता, स्त्रियों के साथ पूर्वानुभूत कामक्रीडा का स्मरण नही कन्ता, पमिाण से अधिक तया कामोद्दीपक आहार ग्रहण नहीं करता और स्त्री, मादा पशु या नपु सक से संसक्त आमन पर नही बैठता । सर्वपरिग्रहविरमण-संसार की सचित्त, अचित्त, मिश्र. विद्यमान या अविद्यमान किसी भी वस्तु मे ममन्वबुद्धि का आजीवन त्याग करना सर्वपरिग्रहविरमण है। इस व्रत का धान्क श्रमण, मन, वचन तया काया से किसी भी वस्तु मे ममत्त्ववद्धिन स्वय रखता है और न दूसरो से रखाता है और न इस कार्य में किसी प्रकार का अनुमोदन ही करता है। इस व्रत के निर्दोपपालन के लिए वह मनोहर शब्द, रूप, रस, गंध, तया स्पर्श मे आसक्ति का पूर्ण त्याग करता है। समिति तथा गुप्ति-श्रमणजीवन की आवश्यक क्रियाओ मे सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करना समिति है । कायिक, वाचिक तथा मानसिक क्रिया का सभी प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है । गुप्ति मे अतिक्रिया का निपेध तथा समिति मे सत्क्रिया का प्रर्वतन मुख्य है। समवायांग मे ५ समिति तया ३ गुप्ति, इन ८ को, प्रवचन--मातर. कहा गया है, क्योकि ये द्वादशागरूप प्रवचन के आधार-भूत संघ तथा श्रमण के लिए माता की तरह हितकारी है । १ वही २, १५ (३) पृ० २०५-२०७ २ आचाराग २, १५ (४), पृ० २०७-२०८ । ३ वही २, १५ (५), पृ० २०८-२१० । ४. समवायाग ८, (अभयदेवसूरिवृत्ति पृ० १३-१४) ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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