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________________ १९६ ] जैन- अगगारन के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास होना मार्दव है । इस धर्म के आचरण के लिए जाति, कुल, बल, तप, लाभ, विद्या, रूप, ऐश्वर्य आदि के मद का त्याग करना आवश्यक है । वाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर अपनी आत्मा में लघुता हलकेपन का अनुभव करना लाघव है । प्राणिमात्र के लिए हिन, मित, प्रिय तथा यथार्थ वचन बोलना सत्य है । मन, वचन तथा काया का नियमन अर्थात विचार वाणी और गतिस्थिति आदि में यतनाचार मनवचनकाय नियंत्रण का अभ्यास करना सयम है। मलिनवृत्तियों को निर्मूल करने के निमित्त अपेक्षितवल की साधना के लिए जो आत्मदमन ( इच्छा निरोध) किया जाता है, वह तप है । वस्तुओं में मूर्च्छाविद्धि का त्याग करना त्याग है । वाह्य कामभोगो से अपना चित्त हटा कर ब्रह्म (आत्मा) मे रमण करना ब्रह्मचर्यवास हे । परिषहजय - स्वीकृत धर्ममार्ग से चलित न होने, स्थिर रहने और कर्मबन्धन के क्षय के लिए जो जो स्थिति ममभावपूर्वक सहन करने योग्य है, उसे परिवह कहते है । श्रमण के लिए इन परिपहो पर विजय प्राप्त करना अत्यावश्यक है । यद्यपि परिपह संक्षेप में कम और विस्तार से अधिक भी कल्पित किए जा सकते हैं, तथापि त्याग को विकसित करने के लिए जिनका सहन करना विशेष आवश्यक है, वे ही २२ परिपह आगम में गिनाए गए है ।" १ दिगिछा (भूख की वाधा ), २ पिपासा ( प्यास की बाधा ). ३ णीत, ४ उप्ण, ५ दशमशक (डॉस, मच्छर, जूं, खटमल मक्खी आदि की बाधा ), ६ अचेल (वस्त्राभाव या वस्त्राल्पता के कारण उत्पन्न वाधा ), ७ अरति (कठिनाइयों के कारण धर्ममार्ग मे अरुचि होना ), ८ स्त्री (विजातीय लिंग के प्रति आकर्षण), ६ चर्या (पद - विहार), १०. नंपेधिकी (सोपद्रव अथवा निरुपद्रव स्वाध्यायभूमि), ११ शय्या ( सुखद अथवा दुखद स्थान तथा विछौना), १२ आक्रोश (दुर्वचन), १३. वध ( लकडी आदि के द्वारा पीटा जाना), १४ याचना ( भिक्षामागना) १५ अलाभ ( भोजनादि का प्राप्त न होना) १६ रोग, १७ तृणस्पर्श ( तीक्ष्णतृणादि का स्पर्श) १८ जल्ल (शरीर तथा वस्त्रादि पर पसीने या मेल की बाधा ), १६ सत्कार - १. समवायाग, २२, पृ० ३८-३९ तथा उत्तराध्ययन, २, परिपहाध्ययन |
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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