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________________ १३२ ] जैन- अंगशास्त्र के अनुसार मानव-व्यक्तित्व का विकास वह अहिंसा, सत्य आदि आचार का स्वयं दृढता से पालन करता है तथा अन्य साधुओ को भी उस आचार के पालन को प्रेरणा देता है । यह पद अधिकार का नहीं, साधको के जीवन-निर्माण का पद है । वह अरिहंत की भूमिका की ओर बढने वाला महाप्रकाश है, जो अपने पीछे चलने वाले चतुर्विध संघ का पथ प्रदर्शन करता है। आचार्य को दीपक कहा है; जो ज्योति को ज्योति से जलाता हुआ दूसरे आत्म- दीपो को भी प्रदीप्त कर देता है । ' स्थानाग मे गुण तथा दीक्षा को दृष्टि मे रख कर आचार्य के कई भेद किए गए है | गुणो की दृष्टि से आचार्य चार प्रकार के होते है १ आमलक - मधुर, ( आवले की तरह मीठा) । २ मुवी का मधुर (दाख की तरह मीठा ) ३ क्षीर- मधुर (दूध की तरह मीठा ) ४ खंड - मधुर ( शक्कर की तरह मीठा ) टीकाकार अभयदेव कहते हैं कि जिस प्रकार आँवला, दाख, दूध तथा शक्कर मे मधुरता की मांत्रा ईषद्, बहु, बहुतर तथा बहुतम रूप मे क्रमश वृद्धि पर है; इसी प्रकार उपशम (शाति) आदि गुणो की क्रम से वृद्धि के कारण आचार्य चार प्रकार के होते है । दीक्षा की दृष्टि से भी आचार्य चार प्रकार के होते है १. प्रवाजनाचार्य २ उत्थापनाचार्य ३ प्रव्राजनोत्थापनाचार्य ४ धर्माचार्य प्रव्राजनाचार्य वे आचार्य कहलाते है, जो गृहस्थो को साधुधर्म की प्रव्रज्या (दीक्षा) देते है । साधुधर्म से स्खलित हो जाने पर श्रमणो को पुन: दीक्षा देने वाले आचार्य उत्थापनाचार्य कहलाते है । १ २. श्रमण सूत्र, पृ० 1 स्थानाग सूत्र, ३२० ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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