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________________ चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १३३ जो आचार्य उपयुक्त दोनो प्रकार के कार्य करते है, वे प्रजाजनोत्थापनाचार्य कहलाते है। जो उपयुक्त तीन प्रकार के कार्यों से रहित हो कर केवल धर्म का उपदेश देते है, वे धर्माचार्य कहलाते है ।' उपाध्याय __ चौथा पद उपाध्याय का है। श्रमण-जीवन मे ज्ञान का विशेष महत्त्व है; क्योकि अज्ञान एक ओर श्रद्धा को शिथिल कर देता है तो दूसरी ओर चरित्र से भी भ्रष्ट कर देता है । विवेकी नाननिष्ठ साधक ही साधना के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है, उत्थान और पतन के कारणो की विवेचना कर सकता है, धर्म और अधर्म के बीच भेदरेखा खीच सकता है, संसार और मोक्ष के मार्ग का पृथक्करण कर सकता है। अज्ञानी साधक क्या जानेगा, वह अन्धा चल तो सकता है परन्तु चले कहाँ ? किस ओर ? उसे न मार्ग का पता है, न मंजिल का । अत यह आवश्यक माना गया कि साधु को निरंतर जान का अभ्यास करते रहना चाहिए । किन्तु यह तव तक संभव नही हो सकता ; जब तक कि किसी विशिष्ट ज्ञानी का समागम उसे प्राप्त न हो । अत यह विधान रखा गया कि अग शास्त्रो तथा पूर्वरूप आगमो के ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति संघ मे अवश्य होना चाहिए; जो कि अन्य समुदायो को निरन्तर ज्ञानाभ्यास मे सहायता प्रदान करता रहे । चरित्र की साधना के समान ही ज्ञान की साधना भी मोक्ष का अंग है। उपाध्याय का पद धर्म-संघ मे जान की ज्योति जगाने के लिए है। वह अन्धो को आँख देता है। स्वयं शास्त्रो को पढ़ना और दूसरो को पढाना उसका कार्य है । वह एक तरह का उपाचार्य होता है; क्योकि आचार्य की अनुपस्थिति में उसे संघ का नेतृत्व भी करना पड़ता है। वह आध्यात्मिक-शिक्षा का सबसे बड़ा प्रतिनिधि होता है। पापाचार के प्रति विरक्ति तथा सदाचार के प्रति अनुरक्ति की शिक्षा देने वाला उपाध्याय वस्तुत साधना-पथ के यात्रियो का सबसे महत्त्वपूर्ण साथी है। चूँकि सघ मे साधुओ की संख्या इतनी अधिक होती है कि आचार्य केवल संघ के अनुशासन मे ही पूर्ण व्यस्त रहता है । अत १. स्थानागसूत्र वृत्ति, (अभयदेव) पृ० २२८-२३० ।
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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