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________________ चतुर्थ अध्याय मानव-व्यक्तित्व का विकास [ १३१ श्रमण अवस्था को प्राप्त व्यक्ति के लिये आवश्यक होता था कि वह स्वतंत्ररूप मे विचरण न कर किसी श्रमण संघ मे सम्मिलित हो, क्योकि एकान्त विचरण के कारण संभव है कि कभी संयम के नष्ट होने का अवसर आ जाए।' आचार्य इस प्रकार के श्रमणसंघो का नेता होता था । महावीर के चतुविध संघ मे जो उनके ११ शिष्य ( गणधर ) थे, वे सभी आचार्य थे । उनमे प्रत्येक के अपने-अपने श्रमण संघ थे । सबसे प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतम के श्रमण संघ मे ५०० श्रमण थे । द्वितीय गणधर अग्निभूति के श्रमण संघ में ५०० श्रमण थे । सवसे अन्तिम गणधर प्रभास के श्रमण संघ मे ३०० श्रमण थे | आचार्य का कर्त्तव्य होता है कि वह अपने संघ मे धार्मिक नियमो के अनुसार व्यवस्था रखे । श्रद्धालु संसारभयभीत व्यक्ति की योग्य परीक्षा कर उसे जिनधर्म में दीक्षित करे। दीक्षित साधुओ को धर्म मे स्थिर एवं दृढ रखने का पूर्ण उत्तरदायित्व आचार्य पर होता है । साधु द्वारा किसी प्रकार का अपराध, अनुशासन की अवहेलना आदि हो जाने पर वह आचार्य के निकट जा कर अपना अपराध निवेदन करता है और आचार्य उसको यथाविधि प्रायश्चित दे कर यथापूर्व, धर्म मे स्थित रहने की प्रेरणा करता है | 3 आचार्य स्वय साधु होता है; अत आचार्य के उपर्युक्त कर्त्तव्यी के अतिरिक्त उसे श्रमणजीवन के पूर्ण कर्त्तव्यों का भी पालन करना पडता है । आचार्य पूरे संघ मे सबसे अधिक ज्ञानी एव चारित्र की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट व्यक्ति होता है, जिसे उदाहरणस्वरूप मान कर अन्य साधु अपने कर्त्तव्य मे दृढ रहकर आत्मविकास की ओर उन्मुख रहते है । आचार्य को धर्मप्रधान श्रमण संघ का पिता कहा गया है । 'आचार्य परम पिता । १ गृहस्थ की स्त्रियों, पुत्रियाँ, पुत्रवधुएँ, दासियाँ या दाइयाँ ब्रह्मचारी श्रमण को लुभाने या डगमगाने का प्रयत्न कर सकती हैं" । - आचाराग २, २, ८२ । २ जैनसूत्राज् भाग १, ( कल्पसूत्र, " लिस्ट आफ स्थविराज्”, १ पृष्ठ २८६, २८७ । ३. “१० प्रकार के वैयावृत्य मे प्रायश्चित्त का स्थान प्रथम है । प्रायश्चित्त का अभिप्राय है, गुरु के निकट जा कर अपने अपराधो का निवेदन करना तथा दडप तप आदि का ग्रहण करना" स्थानाग, ७१२ |
SR No.010330
Book TitleJain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarindrabhushan Jain
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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