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________________ १८० उत्तरायणं एयाइं अट्ठ ठाणाई परिवज्जित्तु संजए । असावज्जं मियं काले भासं भासेज्ज पन्नवं ॥ १० ॥ गवेसणाए गहणे य परिभोगेसणा य जा । आहारो वहिसेज्जाए एए तिन्नि विसोहए ॥ ११ ॥ उग्गमुपायणं पढमे, वीए सोहेज्ज एसणं । परिभोयंमि चउक्कं विसोहेज्ज जयं जई ॥ १२ ॥ ओहोव होवग्गहियं भण्डगं दुविहं मुणी | गिरहन्तो निक्खिवन्तो य, परंजेज्ज इमं विहिं ॥ १३ ॥ चक्खुसा पडिले हित्ता पमज्जेज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्जा वा दुहओ वि समिए सया । १४ ।। उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लियं । आहारं उवह देहं अन्नं वावि तहाविहं ।। १५ ।। , अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए आवाए चेय संलोए ॥ १६ ॥ अणावायमसंलोए परस्सऽणुवधाइए । समे अज्झसिरे यावि अचिरकालकयंमि य ॥ १७ ॥ वित्थिष्णे दूरमोगाढे नासन्ने विलवज्जिए । तसपाणवीयरहिए उच्चाराईणि वोसिरे ॥ १८ ॥ एयाओ पंच समिईओ समासेण वियहिया । एत्तो य त गुत्तीओ वोच्छामि अणुपुव्वसो ॥ १६ ॥ सच्चा तहेव मोसा य सच्चमोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा मणगुत्ती चउव्विहा || २० ||
SR No.010329
Book TitleJainagam Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhileshmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1974
Total Pages383
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size11 MB
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