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________________ संदिग्ध - प्राधान्य और तुल्यप्राधान्य । इनमें से अंतिम दो को मम्मट ने इसी रूप में माना है । मम्मट निरूपित अन्य भेदों को हेमचन्द्र ने प्रथम प्रकार---असत्प्राधान्य में अन्तर्भूत कर लिया है । " ११. चित्रालंकार के विवेचन में हेमचन्द्र ने इसके स्वरचित्र, व्यंजनचित्र, स्थानचित्र, गतिचित्र, मात्रादिच्युत तथा गूढ़ आदि भेदों" का सोदाहरण वर्णन किया है जिनकी चर्चा काव्यप्रकाश में नहीं मिलती । १२. शब्दालंकार वक्रोक्ति का हेमचन्द्र ने एक ही भेद-- ' श्लेष वक्रोक्ति' स्वीकार किया है । उनके विचार में 'काकु वक्रोक्ति' को अलंकार की कोटि में रखना ठीक नहीं है, वह वस्तुतः गुणीभूतव्यग्य या मध्यम काव्य का एक प्रभेद है । " अपने मत के समर्थन में हेमचन्द्र ने ध्वन्यालोक की निम्न कारिका उद्धृत की है अर्थान्तरगतिः काक्वा या चैषा परिदृश्यते । सा व्यंग्यस्य गुणीभावे प्रकारमिममाश्रिता ।।३.३६ १३. हेमचन्द्र ने केवल २६ अर्थालंकारों का वर्णन किया है। यह इसलिए संभव हुआ कि उन्होंने कतिपय अलंकारों के स्वरूप को व्यापकता देकर उनके कलेवर में अन्य कई अलंकारों को समेट लिया है । उदाहरणार्थ, उपमेयोपमा तथा अनन्वय का उपमा में; प्रतिवस्तूपमा व दृष्टान्त का निदर्शना में; तुल्ययोगिता का दीपक में; मीलित, सामान्य, एकावली व विशेष का अतिशयोक्ति में; प्रतीप का आक्षेप में; व्याघात, विशेपोक्ति, असंगति, विषम, अधिक व अतद्गुण का विरोध में; पर्याय व परिवृत्ति का परावृत्ति में; समाधि का समुच्चय में तथा संसृष्टि का संकर में अन्तर्भाव किया गया है । अलंकारों के सरलीकरण व उनकी संख्या के न्यूनीकरण का यह प्रयास सराहन होते हुए भी सर्वत्र तर्कसम्मत नहीं हो सका है। प्रायः दो या अधिक अलंकारों के लक्षणों को किसी एक ही अलंकार में मिश्रित करके उनकी संख्या घटाई गई है । तथापि हेमचन्द्र को इस बात का श्रेय जाता है कि जहां अन्य अलंकारिकों ने अलंकार- संख्या में निरन्तर वृद्धि का मार्ग अपनाया वहां उन्होंने इस सामन्य प्रवृत्ति के विरुद्ध चलने का साहस दिखाया | इस प्रकार यद्यपि कतिपय स्थलों पर हेमचन्द्र ने अपनी स्वतंत्र बुद्धि व मान्यताओं का परिचय दिया है पर जिन विषयों पर उन्होंने पूर्व आचार्यों से मतभेद प्रकट किया है वे इतने महत्त्वपूर्ण नहीं है कि उनकी मौलिकता को प्रतिष्ठापित कर सकें । निश्चय ही उनके ग्रंथ का अधिकतर भाग अन्य ग्रंथों से यथावत् संकलित या अनूदित सामग्री के रूप में है और इसीलिए उन्हें एक मौलिक ग्रंथकार होने का गौरव प्रदान नहीं कर सकता । पर जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं, हेमचन्द्र I आचार्य हेमचन्द्र और उनका काव्यानुशासन : ८५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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