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________________ की सत्ता काव्य में अनिवार्य मानते हैं वहां हेमचन्द्र 'च' पद द्वारा अलंकार रहित शब्दार्थों में भी कदाचित् काव्यत्व स्वीकार करते हैं। ४. मम्मट के विरुद्ध हेमचन्द्र ने गौणी व लक्षणा को पृथक्-पृथक् शब्द शक्ति माना है। इस विषय में वे मीमांसकों से प्रभावित प्रतीत होते हैं। ५. हेमचन्द्र मुख्यार्थवाध, तद्योग तथा प्रयोजन को ही लक्षण का हेतु स्वीकार करते हैं, रूढ़ि को नहीं। मम्मट आदि द्वारा निर्दिष्ट रूढ़ि लक्षणा के स्थलों को वे अभिधा का ही विषय मानते हैं, लक्षणा का नहीं। ६. मम्मट ने अर्थशक्तिमूल ध्वनि में व्यंजक अर्थ के तीन रूप बताये थे--- स्वतः संभवी, कविप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध और कविनिबद्धप्रौढोक्तिमात्रसिद्ध। पर हेमचन्द्र की दृष्टि में यह भेद-व्यवस्था उचित नहीं है । उनके विचार में व्यंजक अर्थ का प्रौढोक्तिनिर्मित होना ही पर्याप्त है: प्रौढोक्ति के अभाव में स्वतः संभवी अर्थ भी अकिंचित्कर है। कवि निबद्धवक्ता की प्रोढोक्ति वस्तुतः कवि की ही प्रौढोक्ति है।" ७. मम्मट आदि ने असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य या रसध्वनि के पद्गत, पदकदेशगत, वाक्यगत, प्रबन्धगत, वर्णगत व रचनागत-- ये छह रूप माने थे, पर हेमचन्द्र के विचार में पदैकदेश भी पद ही है अतः उसे स्वतंत्र प्रकार मानना ठीक नहीं। जहां तक वर्ण व रचना का प्रश्न है वे साक्षात् रूप से गुणों के व्यंजक होते हैं तथा उन्हीं के माध्यम से रसाभिव्यक्ति में उनकी उपयोगिता है ।१२ । ८. हेमचन्द्र ने किन्हीं आचार्यों द्वारा स्वीकृत 'स्नेह', 'लौल्य' व 'भक्ति' रसों का खंडन कर उनका परंपरागत नवरसों में ही अन्तर्भाव किया है। उन्होंने स्नेह के विभिन्न रूपों की विश्रांति पृथक्-पृथक् भावों या रसों में बतायी है, जैसे मित्र स्नेह की 'रति' में, लक्ष्मण आदि के भातृस्नेह की 'धर्मवीर' में एवं माता-पिता के प्रति बालक के स्नेह की भय में। इसी प्रकार गर्धरूप स्थायीभाव वाले 'लौल्य रम' का उन्होंने 'हास' अथवा रति में अन्तर्भाव माना है । १३ ६. हेमचन्द्र ने रसाभास व भावाभास के दो हेतु माने हैं-(१)निरिन्द्रिय तिर्यगादि में रति आदि भावों का आरोप तथा (२) अनौचित्य, जैसे अन्योन्य अनुराग के अभाव में भी रत्यादि का चित्रण। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मम्मट आदि ने रसाभास व भावाभास के द्वितीय रूप को ही माना है।" १०. मध्यमकाव्य के हेमचन्द्र ने तीन ही प्रकार माने हैं-असत्प्राधान्य, ८४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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