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________________ का उद्देश्य किसी मौलिक ग्रंथ का निर्माण करना नहीं था। इस विषय में हम श्री आनंदशंकर बापूभाई ध्रुव के इस विचार से सहमत हैं कि हेमचन्द्र का मुख्य ध्येय अपनी रचनाओं द्वारा ब्राह्मणों के साहित्य से जैनों को परिचित कराना था। अत: अपने ग्रंथों को अधिकाधिक प्रामाणिक बनाने के लिए उन्होंने पूर्ववर्ती ब्राह्मण ग्रंथकारों की कृतियों से सामग्री लेने में तनिक भी संकोच नहीं किया। साथ ही उस पारंपरिक दाय में उन्होंने अपनी ओर से भी थोड़ा-बहुत नया जोड़ा है। डा० एस० के० दे ने काव्यप्रकाश की तुलना में काव्यानुशासन को पाठ्यपुस्तक के रूप में एक निम्नकोटि की कृति बताया है। पर यह मत समीचीन प्रतीत नहीं होता । अनेक टीकाओं के होते हुए भी काव्यप्रकाश आज भी छात्रों व विद्वानों के लिए दुरूह व दुर्बोध ग्रंथ बना हुआ है। दूसरी ओर काव्यानुशासन के सूत्रों, अलंकार-चूड़ामणि वृत्ति व 'विवेक' की प्रतिपादन शैली अपेक्षाकृत सरल व सुबोध है । हेमचन्द्र ने अलंकारों की संख्या भी कम की है जिससे उनके अलंकारविवेचन में जटिलता व दुर्बोधता नहीं आयी है और शिक्षा ग्रंथ के रूप में उसकी उपयोगिता में भी समानान्तर वृद्धि हुई है। बस्तुत: काव्यप्रकाश की तुलना में काव्यानुशासन अपनी विषयगत समग्रता व सुगम विवेचन-शैली के कारण अलंकारशास्त्र की पाठ्यपुस्तक के रूप में अधिक उपयोगी कृति है, पर खेद की बात है कि ब्राह्मणों के विद्या केन्द्रों में जैनाचार्यों की इस सुन्दर कृति का यथोचित सम्मान नहीं हो सका, क्योंकि इसमें आनंदवर्धन के ध्वनि सिद्धांत या कुन्तक के वक्रोक्ति सिद्धान्त के सदृश किसी मौलिक काव्य सिद्धांत की उद्भावना या विवेचना का यत्न नहीं किया गया । हेमचन्द्र का उद्देश्य तो अतीव नम्र व सरल था। उन्होंने शिष्यों व शिक्षार्थियों के लाभार्थ तथा विद्वानों को एक ही स्थान पर काव्यतत्त्वों के विषय में अधिकतम सामग्री मिल सके इस सीमित उद्देश्य से ही काव्यानुशासन की रचना की थी। दुर्भाग्य से मौलिकता के शोचनीय अभाव तथा संग्रह-प्रवृत्ति के अतिरेक के कारण उनके इस प्रयास को समुचित आदर नहीं मिल सका और अलंकारशास्त्र की परवर्ती परंपरा पर भी इसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा। तथापि अलंकारशास्त्र के अनेक लुप्त ग्रंथों से संकलित सामग्री के एकमात्र स्रोत तथा सुबोध शैली में रचित एक पाठ्यग्रंथ के रूप में काव्यानुशासन का महत्त्व असंदिग्ध है। संदर्भ प्रस्तुत निबन्ध में काव्यानुशासन के सभी उद्धरण व संदर्भ श्री रसिकलाल पारीख द्वारा संपादित तथा श्री महावीर जैन विद्यालय, बंबई से १९३८ में प्रकाशित संस्करण से दिये गये हैं। ८६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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