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________________ गुणभद्र ने मिलकर कार्य किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि इन आचार्यों के पास पढ़ने-लिखने के अलावा और कोई काम नहीं था। इसी निष्ठा के कारण जनसाधुओं ने प्राकृत और संस्कृत में ग्रंथों की रचना कर उत्तर भारत के साहित्य की श्रीवृद्धि की। कन्नड़ साहित्य में भी हमें तीन प्रमुख कवि---जिन्हें रत्नत्रय कहा जाता हैउपलब्ध होते हैं- पंप, पोन्न और रण्ण । रण्ण ने गदायुद्ध की रचना की थी और इसको पढ़ते समय 'वेणीसंहार' की बरबस याद आती है। पंप में कालिदास की-सी कल्पनाशक्ति की झलक दृष्टिगोचर होती है। जैन लेखकों ने कन्नड़ की अनेक शाखाओं को दसवीं शती से पन्द्रहवीं शती के बीच पल्लवित किया। उन्होंने व्याकरण, काव्यशास्त्र और यहां तक कि अंकगणित पर भी ग्रंथ लिखे। इनमें कुछ साधु थे, किंतु कुछ गृहस्थ भी जिनमें प्राय: मंत्री, सेनापति आदि भी थे। उनका प्रमुख लक्ष्य लोगों को यथासंभव नैतिक और धार्मिक शिक्षा देना था। धीरे-धीरे दक्षिण में जैन कवियों ने संस्कृत भाषा और साहित्य को समृद्ध किया। साहित्यिक भाषा के रूप में प्राकृत भुला दी गई। हालांकि इसका प्रयोग कुछ धार्मिक ग्रंथों- जैसे धवलाटीका और गोम्मटसार----में हुआ था। जिनसेन संस्कृत का प्रकांड विद्वान् था। उसका पार्वाभ्युदय काव्य कालिदास के 'मेघदूत' का समस्यापूरण है । यह उसकी अद्वितीय उपलब्धि है। इसके अतिरिक्त उसने अपने गुरु वीरसेन द्वारा प्रारंभ की गई जयधवला टीका को भी पूरा किया। उसने महापुराण को भी हाथ में लिया किंतु पूरा नहीं कर सका। यह महापुराण कई दृष्टियों से एक असाधारण रचना है । इसके बाद हमें सोमदेव का 'यशस्तिलकचम्पू' उपलब्ध होता है। इसका सर्वांगीण अध्ययन डा० के० के० हिदिकी ने प्रस्तुत किया है और साहित्यिक कृति के रूप में इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इसी समय, प्रायः इसी दिशा में पुष्पदंत ने अपने अपभ्रंश-ग्रंथों की रचना की है। महापुराण, णायकुमारचरिउ और जसहरचरिउ उसकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं। इन सब ग्रंथकारों को दक्षिण भारतीय साहित्य के उपबृहण के कारण कभी भुलाया नहीं जा सकता। ___ जव जैन लेखकों ने कन्नड़ और तमिल भाषाओं का प्रयोग साहित्यिक दृष्टि से किया, तब व्याकरणों और कोशों की आवश्यकता का अनुभव किया गया। कुछ कन्नड़' व्याकरण संस्कृत भाषा के माध्यम से प्रस्तुत की गईं। भट्ट अकलंक ने शब्दानुशासन की रचना संस्कृत-सूत्रों में की। केशिराज द्वारा प्रणीत 'शब्दमणि दर्पण कन्नड़ का व्यवस्थित तथा पूर्ण व्याकरण है। वस्तुतः यह उदाहरण-समन्वित एक व्याख्या-ग्रंथ है। पहले कन्नड़ काव्य संस्कृतनिष्ठ होते थे किंतु बाद में अंडय्य जैसे कवियों ने 'कब्बिगर-काव जैसे' काव्यों की रचना की जिनमें अधिकांशतः कन्नड़ शब्द थे । यह प्रशंसनीय कार्य है। प्राचीन काल से ही कई काव्यों की रचना तमिल में जैन कवियों द्वारा की गई भारतीय परम्परा को जैन विद्या का अवदान : ३१
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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