SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ I और आज भी की जा रही है। इस संबंध में शिलप्पदिकारम्, जीवकचिंतामणि आदि महान् कृतियां हैं । कन्नड़ में काफी काम हो चुका है और हो रहा है किंतु तमिल में अभी भी पर्याप्त गुंजाइश है - समालोचनात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से । जैन लेखकों ने एक साथ तमिल, कन्नड़, प्राकृत और संस्कृत में रचनाएं कीं। कई बार एक ही कथासूत्र का विस्तार भिन्न-भिन्न लेखकों द्वारा भिन्न-भिन्न भाषाओं में हुआ है । यद्यपि यह सत्य है कि तत्स्थानीय वातावरण की गंध के कारण उनमें अन्तर हो गया है । उदाहरणार्थ, यशोधर की कथा इन सभी भाषाओं में उपलब्ध होती है । अतः यहां इन सभी पाठान्तरों के तुलनात्मक अध्ययन की आवश्यकता है । प्राचीन तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के क्षेत्र में जैनों ने प्रचुर योगदान दिया है। उनका लक्ष्य समाज को धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा देना था । अत: उन्होंने प्रचलित भाषा को प्राथमिकता दी । उन्होंने अपभ्रंश साहित्य को अत्यन्त सावधानी से सुरक्षित रखा क्योंकि यह साहित्य उनके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण था जितना कि संस्कृत और प्राकृत का । दूसरों ने इसकी सुरक्षा पर ध्यान नहीं दिया किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने इस भाषा का उपयोग ही नहीं किया । हमारे पास विश्वास करने लायक ऐसे तथ्य विद्यमान हैं कि अपभ्रंश में अनेक जैनेतर ग्रंथ थे । हेमचंद्र द्वारा उद्धृत अपभ्रंश के अंश इस बात को स्पष्टतया संकेतित करते हैं । हमारे कुछ हिंदी मित्र अपभ्रंश को प्राकृत से अलग समझते हैं । पर ऐसा नहीं है । परवर्ती कुछ रचनाओं के बारे में उनका दृष्टिकोण ठीक हो सकता है किंतु अन्ततः जैसे हम बिना संस्कृत और पालि के प्राकृत नहीं समझ सकते हैं, उसी प्रकार प्राकृत के संदर्भ के बिना अपभ्रंश को सम्यक् रूप से समझना असंभव है । वस्तुतः पूर्ण और सही चित्र प्राप्त करने के लिए अध्ययन में संस्कृत, प्राकृत ( पालि भी) और अपभ्रंश साथ-साथ चलने चाहिए। इनमें से किसी एक में विशेषज्ञ बना जा सकता है किंतु दूसरों की पूर्णतः अवहेलना नहीं की जा सकती । जितनी हम उनकी अवहेलना करेंगे उतने ही हमारे निष्कर्ष अधूरे होंगे । राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के भंडारों में अपभ्रंश के बहुत ग्रंथ सुरक्षित हैं । अद्यावधि जो कुछ प्रकाशित किया गया है, वह सब अत्यल्प है । बहुत कुछ पांडुलिपियों के रूप में पड़ा हुआ है। इनका प्रकाशन और आलोचनात्मक अध्ययन भारतीय आर्यभाषाओं के विकास को समझने में अत्यंत उपयोगी होगा । मैं हिंदी के विद्वानों से निवेदन करता हूं कि वे इस उपेक्षित कार्य की ओर अपना ध्यान केंद्रित करें । यह पूछा जा सकता है कि जैन धर्म ने तथा इसके अनुयायियों ने अखिल भारतीय जनता के लिए क्या किया । जैन धर्म अहिंसावादी है । इसका यह अर्थ नहीं कि यह युद्धक्षेत्र में भी युद्ध के लिए निषेध करता है । कुछ विद्वानों ने इस ३२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy