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________________ एक बार भोजन ग्रहण करता है । जैन आचार्यों में पक्षपात की भावना नहीं होती है। वे दुराग्रही तो होते ही नहीं हैं। उनके मतानुसार कोई भी भाषा दूसरी भाषा की तुलना में न तो हीन है और न उच्च। भाषा का मूल कार्य है विचारों का सम्प्रेषण। इसलिए महावीर तथा बुद्ध ने जनता की भाषा को अपनाया था। इस आदर्श का अनुकरण बाद में अशोक, खारवेल और सातवाहनों ने भी किया था। जहां तक जैनों की बात है, उन्होंने लंबे समय तक प्राकृत भाषा को अपनी धर्म-भाषा बनाये रखा। उनका समस्त आगम तथा आगमेतर प्राचीन साहित्य प्राकृत में लिखा गया। परंतु कालांतर में, उन्होंने पश्चिम, विशेषतः गुजरात और राजस्थान की भांति अपने साहित्यिक कार्य के लिए प्राकृत को नहीं रखा । प्राकृत मात्र धार्मिक कार्यों की भाषा रही और कुछ गोम्मटसार जैसे सैद्धान्तिक तथा धार्मिक ग्रंथ इसमें लिखे गये । एक भी प्रेम-काव्य या समराइच्चकहा या कुवलयमाला की तरह का कोई धर्म-कथा-प्रधान काव्य दक्षिण में प्राकृत में रचित नहीं हुआ, जैसा कि पश्चिम भारत में किया गया। किंतु, साथ ही, जैन आचार्य इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि वे स्थानीय परिस्थितियों एवं सांस्कृतिक वातावरण की अवहेलना करके किसी एक भाषा के माध्यम से अपने धार्मिक सिद्धांतों के पालन करने के कर्तव्य को पूरा नहीं कर सकते। जब उन्होंने देखा कि संस्कृत पूरे देश में ज्ञान और संस्कृति की भाषा है तो वे इसका उपयोग करने में पीछे नहीं रहे। अतः शायद ही ऐसी कोई मंस्कृत साहित्य की शाखा हो जिसे जैन लेखकों और आचार्यों ने समृद्ध न किया हो। उन्होंने काव्यों के प्रणयन के अतिरिक्त व्याकरण, कोश तथा काव्यशास्त्र तथा छन्दशास्त्र आदि का निर्माण भी संस्कृत भाषा में किया है। उन्होंने स्वतंत्र तथा टीकाओं आदि के रूप में न्याय साहित्य की भी वृद्धि की है। ताकिक ग्रंथों के प्रणयन के अलावा उन्होंने भीमकाय पुराणों को भी रचा। यह केवल उनकी धार्मिक भावना ही नहीं थी जिससे अनुप्राणित होकर उन्होंने काव्यसाधना की थी अपितु कुछ की संरचना में स्थानीय भावना भी मूल में थी। अनेक राजा अपने आश्रय में पंडितमंडल रखा करते थे। हाल और विक्रमादित्य इसके ज्वलंत उदाहरण हैं । भोज भी इसी प्रकार की रुचि का राजा था। भोज के अनंतर यह परंपरा गुजरात में दृष्टिगोचर होती है। सिद्धराज और कुमारपाल अध्ययन, अध्यापन और प्रणयनकर्ताओं के बहुत बड़े आश्रयदाता थे। यह अनुश्रुति है कि हेमचंद्र ने कश्मीर से सरस्वती का अपहरण किया और गुजरात ले आया। इसका क्या तात्पर्य है ? मैं समझता हूं कि पाण्डुलिपियां कश्मीर से गाड़ी में भरकर गुजरात लायी गई होंगी और उनका अध्ययन तत्स्थानीय पंडितमंडल ने किया होगा। हम देखते हैं कि हेमचंद्र के नाम पर अत्यधिक पुस्तकें हैं । एक ही व्यक्ति इतना काम नहीं कर सकता। अवश्य ही अन्य युवाविद्वानों का सहयोग उसे प्राप्त हुआ होगा। इसी प्रकार इससे पहले राष्ट्रकूट काल में वीरसेन, जिनसेन और ३० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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