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________________ दगंन, जीवन और जगत् __ ४५ सुसंगठित राज्य है। प्रत्येक विचार (Tdea) अनादि-अनंत एवं अपरिवर्तनपील हैं ।' जब हम यह कहते हैं कि विचार ही तत्त्व है तो इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि वे वैयक्तिक मस्तिष्क के ग्राश्रित एवं परतंत्र हैं। विचार अपने आप में स्वतंत्र, अनादि, अनंत एवं अपरिवर्तनशील हैं; ऐमा समभकर ही हमें प्लेटो की दार्शनिक विचार-धारा का अध्ययन करना चाहिए। ये विचार ही हमारे इस दृश्य जगत् का निर्माण करते हैं । यह निर्माण क्यों व कैसे होता है ? इसका उत्तर देते हुए प्लेटो कहता है कि इस प्रश्न का इसके अतिरिक्त कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं है कि किसी-न-किसी प्रकार ऐसा हो जाता है। इसका अर्थ यह हुया कि हम जिस जगत् का अनुभव करते हैं, वह जगत् वास्तव में अन्तिम सत्य नहीं है । अन्तिम सत्य तो विचारों का एक संगठित समाज है जो नित्य एवं अनादि-अनंत है। बाल का नाम भी श्रादर्शवादी दार्शनिक के रूप में लिया जा सकता है; यद्यपि वह पूर्ण श्रादर्शवादी नहीं है। ऐसा होते हुए भी वह याधुनिक युग ये आदर्शवाद का निर्माता है, इसमें कोई सन्देह नहीं । बर्कल ने अपने पूर्वज लोक के इस मत का खण्डन किया कि वस्तु में दो प्रकार के धर्म होते है.---श्रात्मगत एवं वस्तुगत । यात्मगत धर्म का अर्थ होना है. --ोगे गुण, जो वास्तव में पदार्थ में तो नहीं होते किन्तु ज्ञाता के शान का ऐमा स्वभाव होता है कि वह उन गुणों का वन्तु में प्रारोप कर देता है। उदाहरण के रूप में वर्ण को लीजिए। वास्तव में पदार्थ में या नहीं होता किन्तु माता के नेत्र, मस्तिष्क व दर्शन का पेमा ग्वभाव होता है कि उसे इन लव कारणों की उपस्थिति में वस्तु में वर्ग बियाई देता है । इभी प्रकार ने रम आदि गुग्गों को भी नमन लेना चाहिए । इन गुणों को लोक ने (Secondary qualities) या (Subjective qualities) नाम दिया है । वस्तुगत धर्म, वह धर्म या गृण है. जो वास्तव में पदार्थ में होता है। दृष्टान्त के लिए संख्या ले लीजिए । पदि मेरे सामने पांच घट पड़े है तो वास्तव में वे पांच है। मंती उन्हें पान नहीं दना देती, अपितु वे अपने ब्राप में पांच हैं । 1. Firma 114 1:nmutable.
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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