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________________ ४४ ... . . . . जैन-दर्शन में वैसा ही प्रतिभासित होता है जैसा कि हम उसे जानते हैं। हमारा ज्ञान पदार्थ और विचार के पारस्परिक सम्बन्ध से उत्पन्न होता है, ऐसी हालत में वस्तुतः में पदार्थ क्या है, उसका वास्तविक स्वरूप क्या है, यह हम अपने साधारण ज्ञान से कैसे जान सकते हैं । इससे यह फलित होता है कि पदार्थ अपने आप में ( Thing-in-itselfDing an sich) क्या है, यह जानना हमारे लिए असम्भव है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम सत्य का स्पष्टीकरण करने में सफल नहीं हो सकते । वास्तव में सत्य क्या है, इसका अन्तिम निर्णय करना हमारे अधिकार से बाहर है । हम जगत् को जिस रूप में देखते हैं वह रूप केवल चैतन्य के माध्यम द्वारा हमारे सामने आता है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जगत् का अन्तिम रूप. आध्यात्मिक होना चाहिए, क्योंकि आध्यात्मिकता के अभाव में ज्ञान की संभावना ही नहीं रहती। आध्यात्मिक (चैतन्य) और जड़ दो प्रकार की स्वतन्त्र सत्ता मानने पर उनमें परस्पर कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ! दो परस्पर विरोधी सत्ताएं आपस में ज्ञाता और ज्ञेय का सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकतीं। इसके अतिरिक्त सम्बन्ध का क्या स्वरूप है और वह दोनों सत्ताओं को कैसे जोड़ता है; इसके लिए किसी अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता रहती है अथवा नहीं, इत्यादि प्रश्नों को हल करना बहुत कठिन है । तात्पर्य यही है कि आदर्शवाद अनुमान द्वारा इस निर्णय पर पहुँचता है कि जगत् का अन्तिम और वास्तविक स्वरूप आध्यात्मिक है । वह आध्यात्मिक सत्ता से स्वतन्त्र जड़ तत्त्व की सत्ता स्वीकार नहीं करता। यह आध्यात्मिक तत्त्व क्या है, व्यक्ति और जगत् की अभिव्यक्ति का आधार क्या है; ज्ञान, विचार, अनुभव, बुद्धि आदि का प्राध्यात्मिक सत्ता में कैसे अन्तर्भाव होता है-इत्यादि प्रश्नों पर भिन्न-भिन्न आदर्शवादियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं । हम उन्हें समझने का प्रयत्न करेंगे। .. श्रादर्शवाद की विभिन्न दृष्टियां : .. - आदर्शवाद के अनेक दृष्टिकोणों में एक दृष्टिकोण प्लेटो का भी है। प्लेटो ग्रीक दार्शनिक है। उसकी यह धारणा थी कि तत्त्व विचारों का एक
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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