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________________ ३२२ जैन-दर्शन कोई आपत्ति नहीं। वस्तु का विश्लेषण करने पर प्रथम दो भङ्ग अवश्य स्वीकृत करने पड़ते हैं। विवक्षाभेद से २३ भङ्गों की रचना भगवतीसूत्र में पहले देख ही चुके हैं। १०–स्याद्वाद को मानने वाले केवलज्ञान की सत्ता में विश्वास नहीं रख सकते, क्योंकि केवलज्ञान एकान्तरूप से पूर्ण होता है। उसकी उत्पत्ति के लिए बाद में किसी की अपेक्षा नहीं रहती। ___ स्याद्वाद और केवलज्ञान में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। केवली वस्तु को जिस रूप से जानेगा, स्याद्वादी भी उसे उसी रूप से जानेगा। अन्तर यह है कि केवली जिस तत्त्व को साक्षात् जानेगा--प्रत्यक्ष ज्ञान से जानेगा, स्याद्वादी छद्मस्थ उसे परोक्षरूप से जानेगा-श्रु तज्ञान के आधार से जानेगा। केवलज्ञान पूर्ण होता है, इसका अर्थ यही है कि वह साक्षात् आत्मा से होता है और उस ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा की सम्भावना नहीं है। पूर्णता का यह अर्थ नहीं कि वह एकान्तवादी हो गया। तत्त्व को तो वह सापेक्ष-अनेकान्तात्मक रूप में ही देखेगा। इतना ही नहीं, उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों धर्म रहते हैं । काल जैसे पदार्थ में परिवर्तन करता है वैसे ही केवलज्ञान में भी परिवर्तन करता है। जैनदर्शन केवलज्ञान को कूटस्थनित्य नहीं मानता। किसी वस्तु की भूत, वर्तमान और अनागत-ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। जो अवस्था आज अनागत है वह कल। वर्तमान होती है। जो आज वर्तमान है वह कल भूत में परिणत होती है। केवलज्ञान आज की तीन प्रकार की अवस्थाओं को आज की दृष्टि से जानता है । कल का जानना आज से भिन्न हो जाएगा, क्योंकि आज जो वर्तमान है कल वह भूत होगा और आज जो अनागत है कल वह वर्तमान होगा। यह ठीक है कि केवली तीनों कालों को जानता है, किन्तु जिस पर्याय को उसने कल भविष्यत् रूप से जाना था उसे आज वर्तमान रूप से जानता है । इस प्रकार काल-भेद से केवली के ज्ञान में भी भेद अाता रहता है । वस्तु की अवस्था के परिवर्तन के साथ-साथ ज्ञान की अवस्था भी. बदलतो रहती है। इसलिए केवलज्ञान भी कथंचित् अनित्य है और कथंचित् नित्यं । स्याद्वाद और केवलज्ञान में विरोध की कोई सम्भावना नहीं ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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