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________________ स्याद्वाद ३२१ अनेकान्तरूप से सत् है - यथार्थ है और पररूप से अर्थात् एकान्तरूप से श्रसत् है--प्रयथार्थ है । हमारा यह कथन भी स्याद्वाद ही है । दूसरे शब्दों में स्याद्वाद को कथंचित् यथार्थ और कथंचित् प्रयथार्थं कहना भी स्याद्वाद ही है । ६ - सप्तभंगी के पीछे के तीन भंग व्यर्थ हैं, क्योंकि वे केवल दो भंगों के योग से बनते हैं । इस प्रकार योग से ही संख्या बढ़ाना हो तो सात क्या अनन्त भंग बन सकते हैं । यह हम पहले ही कह चुके हैं कि मूलतः एक धर्म को लेकर दो पक्ष बनते हैं -- विधि श्रौर निषेध । प्रत्येक धर्म का या तो विधान होगा या प्रतिषेध | ये दोनों भंग मुख्य हैं । बाकी के भङ्ग विवक्षाभेद से बनते हैं। तीसरा और चौथा दोनों भङ्ग भी स्वतन्त्र नहीं हैं । विधि और निषेध की क्रम से विवक्षा होने पर तीसरा भङ्ग बनता है और युगपत् विवक्षा होने पर चौथा भङ्ग बनता है । इसी प्रकार विधि की और युगपत् विधि और निषेध की विवक्षा होने पर पाँचवाँ भुङ्ग बनता है । ग्रागे के भङ्गों का भी यही क्रम है । यह ठीक है कि जैनाचार्यों ने सात भङ्गों पर ही जोर दिया, और सात भङ्ग ही क्यों होते हैं, कम या अधिक क्यों नहीं होते, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु भी दिए, किन्तु जैनदर्शन की मौलिक समस्या सात की नहीं, दो की है । वौद्ध दर्शन और वेदान्त में जिन चार कोटियों पर भार दिया जाता है, वह भी सप्तभङ्गी की तरह ही है । उसमें भी मूल रूप में दो ही कोटियाँ हैं । तीसरी और चौथी कोटि में मौलिकता नहीं है । कोई यह कह सकता है कि दो भङ्गों को भी मुख्य क्यों माना जाय, एक ही भङ्ग मुख्य है । यह ठीक नहीं, क्योंकि यह हम देख चुके हैं कि वस्तु न तो सर्वथा सत् या विध्यात्मक हो सकती है, न सर्वथा सत् या निषेधात्मक । विधि और निषेध दोनों रूपों में वस्तु की पूर्णता रही हुई है। न तो विधि निषेध से बलवान् है और न निषेध विधि से शक्तिशाली है। दोनों समान रूप से वस्तु की यथार्थता के प्रति कारण I । वस्तु का पूर्णरूप देखने के लिए दोनों पक्षों की सत्ता मानना श्रावश्यक है । इसलिए पहले के दो भङ्ग मुख्य हैं। हाँ, यदि कोई ऐसा कथन हो, जिसमें विधि और निषेध का समानरूप से प्रतिनिधित्व हो, दोनों में से किसी का भी निषेध न हो, तो उसको मुख्य मानने में जैन दर्शन को २१
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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