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________________ स्याद्वाद २६६ (२) औपयातिक हैं ? औपयातिक नहीं हैं ? औपयातिक हैं और नहीं हैं ? न औपयातिक हैं न नहीं हैं ? (३) सुकृत दुष्कृत कर्म का फल है ? सुकृत दुष्कृत कर्म का फल नहीं है ? सुकृत दुष्कृत कर्म का फल है और नहीं है ? सुकृत दुष्कृत कर्म का फल न है न नहीं है ? मरणानन्तर तथागत है ? मरणानन्तर तथागत नहीं है ? मरणानन्तर तथागत है और नहीं है ? मरणानन्तर न तथागत है न नहीं है ? स्याद्वाद और संजय के संशयवाद में यही अन्तर है कि स्याद्वाद निश्चयात्मक है, जब कि संजय का संशयवाद अनिश्चयात्मक है। महावीर प्रत्येक पक्ष का अपेक्षाभेद से निश्चत उत्तर देते थे। वे न तो बुद्ध की तरह अव्याकृत कहकर टाल दिया करते और न संजय की तरह अनिश्चय का बहाना बनाते । जो लोग स्याद्वाद को संजयबेलटिपुत्त का संशयवाद समझते हैं, वे स्याद्वाद का स्वरूप ही नहीं जानते । जैनदर्शन के आचार्य बार-बार यह कहते हैं कि स्याद्वाद संशयवाद नहीं है, स्याद्वाद अज्ञानवाद नहीं है, स्याद्वाद अस्थिरवाद या विक्षेपवाद नहीं है । वह निश्चयवाद है, ज्ञानवाद है। . उपनिषदों में व बौद्धत्रिपिटक में तत्त्व के विषय में चार पक्ष किस रूप में मिलते हैं, यह लिख चुके । अब हम जैन आगमों में मिलने वाले चारों पक्षों को देखें। इससे हमें मालूम हो जाएगा कि भारतीय दर्शनशास्त्र की परम्परा में ये चारों पक्ष अतिप्राचीन हैं। भगवतीसूत्र में मिलने वाले कुछ उदाहरण देखिए : (१) आत्मारम्भ (३) तदुभयारम्भ १-१।१।१७ (२) परारम्भ (४) अनारम्भ
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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