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________________ २६८ (१) होति तथागतो परंमरणाति ? न होति तथागतो परंमरणाति ? होति च न होति च तथागतो परंमरणाति ? नेव होति न न होति तथागतो परंमरणाति' ? (२) सयंकतं दुक्खवंति ? परंकतं दुक्खवंति ? सयंकतं परंकतं च दुक्खवंति ? असयंकारं अपरंकारं दुक्खंति' ? बुद्ध की तरह संजयवेलट्ठिपुत्त भी इस प्रकार के प्रश्नों का न 'हाँ' में उत्तर देता था न 'न' में । उसका किसी भी विषय में कुछ भी निश्चय न था । बुद्ध तो कम-से-कम इतना कह देते थे कि ये प्रश्न अव्याकृत हैं । संजय उनसे भी एक कदम आगे बढ़ा हुआ था | वह न 'हाँ' कहता, न 'न' कहता, न अव्याकृत कहता, न व्याकृत कहता । किसी भी प्रकार का विशेषरण देने में वह भय खाता था । दूसरे शब्दों में वह संशयवादी था । किसी भी विषय में अपना निश्चित मत प्रकटं न करता था । पाश्चात्य दर्शनशास्त्र में ह्यूम का जो स्थान है, प्रायः वही स्थान भारतीय दर्शनशास्त्र में संजय बेलट्ठपुत्त का है। ह्य ूम भी यही मानता था कि हमारा ज्ञान निश्चित नहीं है, इसलिए हम अपने ज्ञान से किसी अन्तिम तत्त्व का निर्णय नहीं कर सकते । सीमित अवस्था में रहते हुए सीमा से बाहर के तत्त्व का निर्णय करना हमारे सामर्थ्य से परे है। संजय ने जिन प्रश्नों के विषय में विक्षेपवादी वृत्ति का परिचय दिया, उनमें से कुछ ये हैं'– 1 ( १ ) परलोक है ? परलोक नहीं है ? परलोक है और नहीं है ? न परलोक है ग्रौरन नहीं है ? जैन- दर्शन १ – संयुत्तनिकाय २ - वही १२।१७ ३ - दीघनिकाय - सामफल सुत्त
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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