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________________ ३०० जैन-दर्शन प्रा(१) गुरु (३) गुरुलघु (२) लघु (४) अगुरुलघु (१) सत्य (२) मृषा (३) सत्यमृषा (४) असत्यमृषा इस विवेचन से स्पष्ट झलकता है कि अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति और अवक्तव्य ये चार भंग प्राचीन एवं मौलिक हैं । महावीर ने इन चार भंगों को अधिक महत्व दिया । यद्यपि आगमों में इनसे अधिक भंग भी मिलते हैं, तथापि ये चार भंग मौलिक हैं, अतः इनका अधिक महत्व है। इन भंगों में अवक्तव्य का स्थान कहीं तीसरा है, तो कहीं चौथा है। ऐसा क्यों ? इसका उत्तर हम पहले ही दे चुके हैं कि जहाँ अस्ति और आस्ति इन दो भंगों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का तीसरा स्थान है और जहाँ अस्ति, नास्ति और अस्तिनास्ति (उभय) तीनों का निषेध है वहाँ अवक्तव्य का चौथा स्थान है । इन चार भंगों के अतिरिक्त अन्य भंग भी मिलते हैं किन्तु वे इन भंगों के किसी-न-किसी संयोग से ही बनते हैं। ये भंग किस रूप में आगमों में मिलते हैं, यह देखें। भंगों का आगमकालीन रूप : ___ भगवतीसूत्र के आधार पर हम स्याद्वाद के भंगों का स्वरूप . समझने का प्रयत्न करेंगे । गौतम महावीर से पूछते हैं कि 'भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है' इसका उत्तर देते हुए महावीर कहते हैं :- १–रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा है । २-रत्नप्रभा पृथ्वी स्यात् आत्मा नहीं है। १-१९७४ २-१३७१४६३ ३-भगवतीसूत्र १२।१०।४६६ ४-आप्तमीमांसा, १६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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