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________________ २८३ स्याद्वाद लोक की नित्यता श्रनित्यता : बुद्ध के विभज्यवाद का स्वरूप हम देख चुके हैं । कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिन्हें बुद्ध ने ग्रव्याकृत कहा है । वे प्रश्न विभज्यवाद के अन्तर्गत नहीं प्राते। ऐसे प्रश्नों के विषय में बुद्ध ने न हाँ' कहा न 'न' कहा । लोक की नित्यता और ग्रनित्यता के विषय में भी बुद्ध का यही दृष्टिकोण है' । महावीर ने ऐसे प्रश्न के विषय में मौन धारण करना उचित न समझा । उन्होंने उन प्रश्नों का विविध रूप से उत्तर दिया । लोक नित्य है या अनित्य ? इस प्रश्न का उत्तर महावीर ने यों दिया - जमालि ! लोक शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी तीनों कालों में ऐसा एक भी समय नहीं मिल सकता, जब लोक न हो, ग्रतएव लोक शाश्वत है । लोक सदा एक रूप नहीं रहता । वह अवसर्पिणी और उत्सपिणी में बदलता रहता है । अतएव लोक प्रशाश्वत भी है' । महावीर ने प्रस्तुत प्रश्न का दो दृष्टियों से उत्तर दिया है । लोक हमेशा किसी-न-किसी रूप में रहता है, इसलिए वह नित्य हैध्रुव है - शाश्वत है - परिवर्तनशील है । लोक हमेशा एकरूप नहीं रहता । कभी उसमें सुख की मात्रा बढ़ जाती है तो कभी दुःख की मात्रा अधिक हो जाती है । कालभेद से लोक में विविधरूपता प्रती रहती है । ग्रतः लोक अनित्य है, अशाश्वत है, अस्थिर है, परिवर्तनशील है, ध्रुव है, क्षणिक है । सान्तता और अनन्तता : लोक की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न को लेकर भी महावीर ने इसी प्रकार का समाधान किया । "लोक चार प्रकार से जाना जाता है- द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है और सान्त है । १- मज्झिमनिकाय, चूलमालवयसुत्त ६३ २ - प्रसासए लोए जमाली ! जम्रो ग्रोसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्सप्पिणी भविता श्रोतप्पिणी भवइ । - भगवती सूत्र, ६१३३/३८७ --
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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