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________________ • २८२ जैन-दर्शन प्रतीति अवश्य होती है । विना प्रतीति के किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन सम्भव नहीं । ऐसी स्थिति में इनका क्या स्थान है ? ये दोनों अंशतः सत्य हैं, और अंशतः मिथ्या । एक पक्ष जिस अंश में सच्चा है, दूसरा पक्ष उसी अंश में झूठा है । इसीलिए उनमें परस्पर कलह होता है । एक पक्ष समझता है कि मैं पूरा सच्चा हूँ और मेरा प्रतिपक्षी बिल्कुल झूठा है । दूसरा पक्ष भी ठीक यही समझता है । यही कलह का मूल कारण है। जैनदर्शन इस सत्य से परिचित है । वह मानता है कि वस्तु में अनेक धर्म हैं। इन धर्मों में से किसी भी धर्म का निषेध नहीं किया जा सकता । जो लोग एक धर्म का निषेध करके दूसरे धर्म का समर्थन करते हैं वे एकान्तवाद की चक्की में पिस जाते हैं । वस्तु कथंचित् भेदात्मक है कथंचित् अभेदात्मक है, कथंचित् सत्कार्यवाद के अन्तर्गत है कथंचित् असत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् निर्वचनीय है कथंचित् अनिर्वचनीय है, कथंचित् तर्कगम्य है कथंचित् तांगम्य है । प्रत्येक दृष्टि की एवं प्रत्येक धर्म की एक मर्यादा है । उसका उल्लंघन न करना ही सत्य के साथ न्याय करना है । जो व्यक्ति इस बात को न समझ कर अपने प्राग्रह को जगत् का तत्त्व मानता है, वह भ्रम में है । उसे तत्त्व के पूर्णरूप को देखने का प्रयत्न करना चाहिए । जब तक वह अपने एकान्तवादी आग्रह का त्याग नहीं करता, तब तक तत्त्व का पूर्ण स्वरूप नहीं समझ सकता। किसी वस्तु के एक धर्म को तो सर्वथा सत्य मान लेना और दूसरे धर्म को सर्वथा मिथ्या कहना वस्तु की पूर्णता को खंडित करना है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्म अवश्य ही एक दूसरे के विरोधी हैं, किन्तु सम्पूर्ण वस्तु के विरोधी नहीं हैं । वस्तु तो दोनों को समान रूप से आश्रय देती है । यही दृष्टि स्याद्वाद है, अनेकान्तवाद है, अपेक्षावाद है । परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है ? पदार्थ में वे किस ढंग से रहते हैं ? हमारी प्रतीति से उनका क्या साम्य है ? इत्यादि प्रश्नों का, आगमों के आधार पर विचार करें।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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