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________________ स्याद्वाद २८१ करते हैं वे अभेदवाद को ही जगत् का मौलिक तत्त्व मानते हैं और भेद को मिथ्या कहते हैं। उसके विरोधी रूप भेदवाद का समर्थन करने वाले इससे विपरीत सत्य का प्रतिपादन करते हैं । वे अभेद को सर्वथा मिथ्या समझते हैं और भेद को ही एकमात्र प्रमाण मानते है । सद्वाद का एकान्तरूप से समर्थन करने वाले किसी भी कार्य की उत्पत्ति या विनाश को वास्तविक नहीं मानते। वे कारण और कार्य में भेद का दर्शन नहीं करते । दूसरी ओर असद्वाद के समर्थक हैं । वे प्रत्येक कार्य को नया मानते हैं । कारण में कार्य नहीं रहता, अपितु कारण से सर्वथा भिन्न एक नया ही तत्त्व उत्पन्न होता है। कुछ एकान्तवादी जगत् को अनिर्वचनीय समझते हैं । उनके मत से जगत् न सत् है, न असत् है । दूसरे लोग जगत् का निर्वचन कर सकते हैं। उनकी दृष्टि से वस्तु मात्र का निर्वचन करना अर्थात् लक्षणादि बनाना असम्भव नहीं । इसी तरह हेतुवाद और अहेतुवाद भी आपस में टकराते हैं। हेतुवाद का समर्थन करने वाले तर्क के वल पर विश्वास रखते हैं। वे कहते हैं कि तर्क से सब कुछ जाना जा सकता है । जगत् का कोई भी पदार्थ तर्क से अगम्य नहीं। इस वाद का विरोध करते हुए अहेतुवादी कहते हैं कि तर्क से तत्त्व का निर्णय नहीं हो सकता । तत्त्व तर्क से अगम्य है। एकान्तवाद की छत्रछाया में पलने वाले ये वाद हमेशा जोड़े के रूप में मिलते हैं । जहाँ एक प्रकार का एकान्तवाद खड़ा होता है वहाँ उसका विरोधी एकान्तवाद तुरन्त मुकाबले में खड़ा हो जाता है । दोनों की टक्कर प्रारम्भ होते देर नहीं लगती। यह एकान्तवाद का स्वभाव है । इसके बिना एकान्तवाद पनप ही नहीं सकता। एकान्तवाद के इस पारस्परिक शत्रुतापूर्ण व्यवहार को देखकर कुछ लोगों के मन में विचार पाया कि वास्तव में इस क्लेश का मूल कारण क्या है ? सत्यता का दावा करने वाले प्रत्येक दो विरोधी पक्ष आपस में इतने लड़ते क्यों हैं ? यदि दोनों पूर्ण सत्य हैं तो दोनों में विरोध कैसा ? इससे मालूम होता है कि दोनों पूर्ण रूप से सत्य तो नहीं हैं। तब क्या दोनों पूर्ण मिथ्या हैं ? ऐसा भी नहीं हो सकता, क्योंकि ये लोग जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसकी
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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